ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्य प्रदेश)
नायाब भिक्षुक - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी
मंगलवार, मार्च 19, 2024
विद्यालय से पढ़ाकर घर लौटते समय अपने साथी आचार्य दीनू महोदय की सहमति चाहते हुए आचार्य पंकज ठहाके लगाते हैं और कहते हैं कि बच्चों को पढ़ाई विषयक विषय-वस्तु सब कुछ नहीं सीखा देना चाहिए वरना वो इज़्ज़त नहीं करेंगें और सीखा देने पर हमारी क़ीमत मिट्टी मोल भी न बचेगी। सहकर्मी आचार्य और आचार्य पंकज संवाद करते हुए एक मंदिर के पास आ पहुँचें; जहाँ एक भिखारी अपने भिक्षा में मिले पर्याप्त धन में से थोड़ा सा अपने पास रखता है और बाक़ी का अन्य भिखारियों को देने लगता है। धन पाते सब चहचहाकर उसको दुलारने लगते हैं। दोनों आचार्य को यह सब देखकर आश्चर्य होना अवश्यंभावी था। वे भिखारी से इन सबका कारण पूछते हैं कि "यूँ तो कोई ऐसा नहीं करता, मानसिक विक्षिप्त हो क्या भाई।" भिक्षुक सरल उपदेशात्मक प्रभावी शब्दों में कहता है कि "ईश्वर ने सोच समझकर मुझे भिक्षुक का किरदार दिया है, इसे बेमिसाल नायाब निभाना है बंधु, यही रहस्य है मुक्ति का।" और यह कहकर वह बचाए धन से अपने भोजन की व्यवस्था करने चला जाता है।
उस भिक्षुक की बात सुनते ही दोनों आचार्य विचारों के गहन वन में खो गएँ मानो उनके किरदार की सड़न की दुर्गंध अनावरण हो गई हो।
हम घर के भीतर और बाहर ईश्वर से प्राप्त अनेक किरदारों को निभाते हैं। क्या हम कोशिश करते हैं कि हमारा किरदार बेमिसाल नायाब हो?
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