सुनीता प्रशांत - उज्जैन (मध्य प्रदेश)
जंगली मन - कविता - सुनीता प्रशांत
मंगलवार, अप्रैल 16, 2024
इन हरे भरे जंगली पेड़ों जैसे
मैं भी हरी भरी हो जाऊँ
मनचाहा आकार ले लूँ
कितनी भी बढ़ जाऊँ
फैल जाऊँ दूर-दूर तक
या आकाश को छू जाऊँ
रोकना न तुम
आँधी हो या तूफ़ान
चाहे हो जाए अतिवृष्टि
सब सहलूँगी मैं
मुझे बढ़ने देना तुम
आए कोई बाधाएँ
या कोई हों सीमाएँ
घेरा वो तोड़ देना तुम
बहूँ किसी पहाड़ से
निर्झरिणी सी उन्मुक्त
बन जाऊँ कोई झरना
भर लेना अंजुली में या
जी भर के नहा लेना तुम
बनूँ अगर मैं मधु मालती
भर-भर गुच्छे सी लद जाऊँ
अपने आँगन में लगा लेना तुम
सजा लेना कमरे में
ख़ुशबू सी भर जाऊँगी मैं
रूप कोई भी हो मेरा
बस यूँ ही सराहना तुम
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