मैं चिर निर्वासित दीपक हूँ - कविता - राघवेंद्र सिंह
शुक्रवार, मई 10, 2024
दिनकर-सी चाह नहीं मेरी,
उद्घोषित राह नहीं मेरी।
निर्भीक, निडर, निश्चल-सा मैं,
प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल-सा मैं।
स्पंदन ही जीवन मेरा,
नभ तारक-सा चितवन मेरा।
घर की देहरी पर आसन है,
वह स्वर्ण जड़ित सिंहासन है।
इस सिंहासन पर आरूढ़ित,
मैं पथ आलोकित ज्ञापक हूँ।
लघु-सा तम को हरने वाला,
मैं चिर-निर्वासित दीपक हूँ।
मुझमें उर्मिल करुणालय है,
मुझमें ही पूर्ण हिमालय है।
विद्युत-सी चमक चिरन्तन है,
मन स्मृतियों का मंथन है।
है मेरी वर्तिका में सिहरन,
तम को हरने का संकल्पन।
मैं स्वयं सारथी बन चलता,
मैं युगों-युगों तक हूँ जलता।
प्राणांत मुक्त, उन्मुक्त सदा,
मैं नित-नव पल उद्दीपक हूँ।
लघु-सा तम को हरने वाला,
मैं चिर-निर्वासित दीपक हूँ।
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