आत्मगत सौंदर्य - आलेख - कृपी जोशी
शनिवार, जून 22, 2024
हालिया दिनों में यूपी दसवीं बोर्ड का रिजल्ट जारी किया गया था जिसमें प्राची निगम ने राज्यस्तरीय टॉपर सूची में प्रथम स्थान अंकित कर ढेरों बधाइयाँ बटोरी। लड़की की छोटी सी दुनिया में एक ओर उसका मन अपने परिणामों से प्रफुल्लित था तो दूसरी छोर पर सोशल मीडिया नाम से सुसज्जित दुनिया में उसके बाहरी रूपाकार, चेहरे की बनावट, चेहरे पर आए अनचाहे बालों को बिंदु बनाकर भव्य रूप से फैले इस अंतरजाल पर जान-बूझकर विघटनकारी अंदाज़ में ऑनलाइन टिप्पणी कर लड़की के कोमल मन पर प्रहार किया। इन प्रतिक्रियाओं को देख स्वाभाविक ही यह सवाल उठता है कि क्या हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहाँ बाहरी सौन्दर्यमयी वातावरण, रूप-रंग को तवज्जो दी जाती है, जहाँ मेहनत-प्रतिभा जैसे शब्दों का कोई मोल नही है। मनुष्यों की बनाई इंटरनेट वाली दुनिया में हम परफेक्ट सरीखा शब्द बोझ स्वरूप स्वयं पर ढाए हुए सफ़र कर रहे है। नतीज़ा यह है कि छोटी सी उँच-नीच या फिर मनुज के प्रकृति प्रदत्त सौंदर्य के निखार में कमी आते ही उसे अनेक आलोचनाओं और समाज की रुग्ण मानसिकता का सामना करना पड़ जाता है। सोशल मीडिया की अभद्र ट्रॉलिंग ने छात्रा को यह कहने पर मजबूर कर दिया कि काश! मैं फर्स्ट आती ही नहीं... यह वाक्य लड़की की मनोस्थिति को बयाँ तो करता ही है इससे इतर आधुनिकता की अंधी दौड़ में शामिल समाज की बनी बनाई व्यवस्था पर भी तमाचा मारता हुआ नज़र आता है।
विषय के संदर्भ में सौंदर्य के कवि बिहारी का दोहा अनायास ही स्मृति में आ जाता है―
"समै-समै सुंदर सबै, रूप कुरूप न कोई।
मन की रुचि जैती जितै, तित तेती रुचि होय"॥
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कविवर के इस दोहे को कदाचित ही कोई आत्मसात् कर पाता होगा कि सौंदर्य आत्मगत होना चाहिए न कि वस्तुगत।
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