सुनीता प्रशांत - उज्जैन (मध्य प्रदेश)
अहसास - कविता - सुनीता प्रशांत
मंगलवार, जून 04, 2024
छोड़ आई जो माँ की गली
वो गली गुम गई है
वो राह तकती दो आँखें
हमेशा के लिए बंद हो गई हैं
वो मोहल्ला भी नहीं रहा
वो लोग भी न जाने कहाँ गए
कुछ वक्त की भेंट चढ़ गए
कुछ के मुखौटे बदल गए
बाज़ार भरा पड़ा था
पर मेरा कुछ सामान न था
बस थी तो माँ की गंध
था वही अहसास
उस अहसास को लपेट कर
उस गंध को साँसों में भरकर
समेट लिया सब मैंने
जो था मेरे ही अपने पास
जीने के लिए था वो पर्याप्त।
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