सूर्य प्रकाश शर्मा - आगरा (उत्तर प्रदेश)
स्वार्थी मनुष्य - कविता - सूर्य प्रकाश शर्मा
बुधवार, जून 05, 2024
मानव ने पूरी धरती पर,
आधिपत्य है जमा लिया।
पूरी पृथ्वी पर मानव ने,
बस अपना घर बना लिया॥
यद्यपि ईश्वर ने मानव के–
साथ और भी भेजे थे।
पशु, पक्षी, पेड़ व पौधे,
ईश्वर ने सभी सहेजे थे॥
निर्माता ने सोचा होगा,
अद्भुत रचना की है मैंने।
अपनी सारी रचनाओं को,
कुछ ख़ास चीज़ दी है मैंने॥
प्रभु ने मृग को कस्तूरी दी,
सुन्दर पंखों से मोर सजा।
तोते को लाल चोंच दे दी,
सिंह क्रोध में फिर गरजा॥
कोयल की वाणी बहुत मधुर,
कुत्ते को मिली वफ़ादारी।
बस मानव को बुद्धि दे दी,
ये सब गुण पर सबसे भारी॥
ईश्वर ने सब निर्माण बाद,
पृथ्वी पर सबको पहुँचाया।
निर्माता अपनी कृतियों से,
मन ही मन में इतराया॥
निश्चिंत हुए जब ब्रह्मा जी,
नव रचनाएँ लाने को।
शांति पूर्ण एकांतवास में,
लग गए ध्यान लगाने को॥
ईश्वर ने लाखों बर्षों तक,
अपना ध्यान नहीं खोला।
कर पूर्ण साधना परमेश्वर ने,
सर्वप्रथम बस यह बोला॥
“देखूँ मैं जाकर पृथ्वी पर,
मेरी संतानें कैसी हैं?
भेजी सब गुण से परिपूर्ण,
क्या अब तक वे सब वैसी हैं?”
चलने लगे ईश पृथ्वी पर,
मन में था संतोष बहुत।
सब रचनाओं में तालमेल के,
दृश्य हेतु था जोश बहुत॥
सोचा पशु, पक्षी व मानव,
एक साथ खाते होंगे।
कोयल और मनुष्य साथ में,
मेरे गुण गाते होंगे॥
वृक्षों और मनुष्यों में जब,
भाईचारा देखूँगा।
आज सहस्रवर्षोपरांत मैं,
जग ये सारा देखूँगा॥
पहुँचे जब जंगल में ब्रह्मा,
देखा वहाँ शोर अत्यंत।
हिरण तीर से घायल होकर,
तड़पा बहुत हुआ प्राणांत॥
थोड़े से वे दुखी हुए पर,
आगे बढ़ने लगे तभी।
दृश्य प्रभु ने ऐसा देखा,
जैसा देखा नहीं कभी॥
सिंह, व्याघ्र, मृग, भालू, हाथी,
क्लांत हो रहे चारों ओर।
बिजली के गर्जन के समान,
वहाँ हो रहा पल-पल शोर॥
बंदूक चलाई हाथी पर,
तो हाथी हुआ धराशाई।
पशुओं के क्रंदन को सुनकर,
आँख ईश की भर आई॥
प्रभु ने सोचा कुछ कुछ बालक,
बड़े अधर्मी होते हैं।
किन्तु कई ऐसे भी हैं जो,
बीज धर्म के बोते हैं॥
पहुँचे प्रभु समुद्र किनारे,
देखा वहाँ तैरता जाल।
मछली उसमें फँसा फँसाकर,
मानव खींच रहा तत्काल॥
चलते-चलते आगे पहुँचे,
देखा वहाँ घिनौना काम।
बकरी, मुर्गे, कुत्ते, सूअर,
मानव काट रहा अविराम॥
पेड़ काट डाले मानव ने,
छीन लिया सबका आवास।
काट काटकर पशुओं को, वो
बड़े चाव से खाता माँस॥
क्लांत हो गया ईश्वर का मन,
अंधकारमय लगती राह।
“क्यों मैंने भेजा मानव को!”
भरी प्रभु ने मन में आह॥
“मेरी इस सुन्दर सृष्टि को,
मानव ने बर्बाद किया।
मैंने मानव रचना करके,
बहुत बड़ा अपराध किया॥”
“मानव ने पूरी धरती पर
आधिपत्य है जमा लिया।
पूरी पृथ्वी पर मानव ने,
बस अपना घर बना लिया॥”
“पशु, पक्षी, पेड़ और पौधे,
सबको मानव मार रहा।
मेरी इस रचना करने का,
सारा श्रम बेकार रहा॥”
क्रोध भरा ब्रह्मा के मन में,
बोले, “मानव रोएगा।
स्वास्थ्य, प्रकृति व जीवनशक्ति,
को ये मानव खोएगा॥”
“धरा संतुलन बिगड़ जाएगा,
तब बीमारी ढोएगा।
वैसा ही काटेगा,
जैसा भी बीज यहाँ पर बोएगा॥”
“पानी, भोजन बिना अरे क्या,
पल भर भी रह पाएगा।
तब कर्मों को सोच सोचकर,
ये मनुष्य पछताएगा॥”
“इस धरती के तंत्र हेतु,
केवल मानव ही मुख्य नहीं।
पशु, वृक्ष, वायु व नदियाँ,
आवश्यक हैं यहाँ सभी॥”
उसी क्रोध से, उन्हीं कर्म से,
मानव दण्डित होता है।
प्रकृति का प्रकोप मनुज पर,
अधिक प्रचण्डित होता है॥
भोग रहा है कर्मों का फल,
असमय वर्षा व तूफ़ान।
चक्रवात, पृथ्वी का कंपन,
अरे! सुधर जा ओ इंसान॥
महाप्रलय केदारनाथ की,
तेरे कर्मों का कारण,
घोले वायु, जल में विष तू,
स्वार्थ पूर्ण सब उच्चारण॥
ऐसी बीमारी हैं जिनका,
नहीं कोई तुझ पर उपचार।
औषधियाँ सारी हैं उनके–
आगे बिल्कुल बेकार॥
शुरू हुई है अभी प्रलय तो,
देखो आगे प्रकृति के खेल।
जो तूने बाँटा है सबको,
उसको वापिस तू ही झेल॥
वक़्त नहीं है बचा मगर,
तू थोड़ी कोशिश करे अगर।
हो सकता है सरल हो सके,
कठिन हो गई है जो डगर॥
क्षमा माँग लो प्रकृति से,
हो जाएँ शायद क्षमा अभी।
यदि अभी नहीं सोचा तुमने,
तो फिर तो आगे कभी नहीं॥
सर्वशक्तिमान ना समझो,
हाँ तुम सबसे ताक़तवर।
हाथी को भी मार डालती,
छोटी सी वो चींटी मगर॥
वृक्ष काटकर गुनाह किया है,
वृक्ष रोप कर प्रायश्चित।
प्रकृति की सन्तान सभी,
ये माफ़ करेगी तुमको निश्चित॥
खाने को जो निर्धारित है,
उसे बनाओ अपना भोग।
जानवरों को खाकर के,
तुम नहीं लगाओ कोई रोग॥
जिस प्रकार तुम माँग रहे हो,
ईश्वर से जीवन की भीख।
उसी तरह से जानवरों की,
भी तो निकला करती चीख़॥
प्रकृति के सारे घटकों को,
मित्र बना लो अगर सभी।
तो ये भूख और रोगों से,
मरने देगी नहीं कभी॥
पहल करो तो अभी करो,
ये वक़्त कभी ना आएगा।
आगे तो फिर सिर्फ़ हृदय में,
पछतावा रह जाएगा॥
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