बढ़ने लगी उदासी - कविता - प्रवीन 'पथिक'
बुधवार, जुलाई 31, 2024
तुम खो गए हो!
जैसे हवाएँ स्पर्श कर निकल जाती हैं।
उदासी बढ़ने लगी है;
जैसे अँधेरा घहराने लगता है।
मन मायूसी के सागर में डूब गया है,
जैसे संसार में कोई खो जाता है।
क़दम थक गए हैं,
जैसे बुढ़ापे का बोझ उठाने में अक्षम हो।
भाव विरक्त हो गए हैं;
जैसे निरर्थक लगता हो सब कुछ,
आशाएँ, निराशा में
चाहत, नफ़रत में
इच्छाएँ, अनिच्छा में
और सुख, शोक में परिवर्तित हो गया है।
जैसे हुआ ही नहीं हो कुछ–
सब,
यथावत्;
यथास्थान।
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