बढ़ने लगी उदासी - कविता - प्रवीन 'पथिक'

बढ़ने लगी उदासी - कविता - प्रवीन 'पथिक' | Hindi Kavita - Badhne Lagi Udaasi - Praveen Pathik. उदासी पर कविता
तुम खो गए हो!
जैसे हवाएँ स्पर्श कर निकल जाती हैं।
उदासी बढ़ने लगी है;
जैसे अँधेरा घहराने लगता है।
मन मायूसी के सागर में डूब गया है,
जैसे संसार में कोई खो जाता है।
क़दम थक गए हैं,
जैसे बुढ़ापे का बोझ उठाने में अक्षम हो।
भाव विरक्त हो गए हैं;
जैसे निरर्थक लगता हो सब कुछ,
आशाएँ, निराशा में
चाहत, नफ़रत में
इच्छाएँ, अनिच्छा में
और सुख, शोक में परिवर्तित हो गया है। 
जैसे हुआ ही नहीं हो कुछ–
सब,
यथावत्;
यथास्थान।


Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos