क्या मैं तुम्हें उपहार में दूँ - कविता - राघवेंद्र सिंह
गुरुवार, जुलाई 25, 2024
हे सृजन की वल्लभा!
हे प्रीत की परिचायिका!
हूँ आज करता मैं नमन,
हे काँति शोभित नायिका!
तुम शून्य से संवाद हो,
तुम ही मेरी दिग्दर्शिका।
तुमसे ही ख्याति विश्व में,
तुम ही हृदय स्पर्शिका।
तुम वर्णमाला वीथिका से,
काव्यमाला तक हो लाई।
इस सृजन के पथ पे मैंने,
तुमसे ही पहचान पाई।
हूँ ऋणी मैं ही तुम्हारा,
क्या तुम्हें शृंगार में दूँ?
ऐ मेरी चिर लेखनी!
क्या मैं तुम्हें उपहार में दूँ?....
तुम साधिका, संवर्धिका,
तुम ही प्रणय का पात्र हो।
तुमसे ही है सौंदर्यता,
तुम श्वास ही एक मात्र हो।
तुम ही हो निश्चल रंगिनी,
तुम ही हृदय की चंचला।
तुम ही सकल इस विश्व में,
हो काव्य पथ की अप्सरा।
तुम ही जन्मती काव्य को,
तुम ही तो शाश्वत सत्य हो।
तुम ही हो रोली, पुष्प, अक्षत,
तुम हृदय आधिपत्य हो।
हूँ मैं निमित एक मात्र ही
क्या ही भला संसार में दूँ?
ऐ मेरी चिर लेखनी,
क्या मैं तुम्हें उपहार में दूँ?
तुम ही पढ़ अंतस ह्रदय,
तुम काव्य हो गढ़ती नवल।
तुम ही मेरी उत्कृष्टता,
तुम ही हो बन जाती कंवल।
तुम ही जगत वरदान हो,
तुम ही समर्पित भाव हो।
तुम में समाहित वेदना,
तुम ही व्यथा संभाव हो।
तुम प्राण की अभिव्यंजना,
तुम ही मरुथल स्रोतिनि।
तुममें ही आरम्भ-अंत है,
तुम ही हो सर्वस्व द्योतिनी।
हो मेरा उपहार तुम ही,
क्या तुम्हें आभार में दूँ?
ऐ मेरी चिर लेखनी,
क्या मैं तुम्हें उपहार में दूँ?
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