घनश्याम तिवारी - कोरबा (छत्तीसगढ़)
दोस्ती अमरकंटक - कहानी - घनश्याम तिवारी | दोस्ती पर कहानी
बुधवार, अगस्त 07, 2024
स्कूल से घर लौटकर आराम ही कर रहा था कि सचिन सर का फ़ोन आ गया। पिकनिक जाने का प्लान बनाया था सचिन सर ने। मैंने कहा – यार मुझे कैसे याद कर लिया? देखता हूँ... सोचकर बताता हूँ... कहकर मैंने फ़ोन रख दिया। मुझे आश्चर्य हो रहा था। इस तरह के ग्रुप ईवेंट्स में वो भी जिसमें केवल पुरूष दोस्त ही जाते हों मैं कम ही या यों कहें नहीं के बराबर जाता था। एक वरिष्ठ, गंभीर और रिजर्व क़िस्म की छवि थी मेरी स्कूली सहकर्मियों के बीच इसलिए मुझे इस तरह मेरे सहकर्मी जो मुझसे काफ़ी छोटे भी थे उम्र में उनका पिकनिक के लिए आमंत्रित करना ज़रा अजीब सा लग रहा जा।
यूट्यूब पर रेसिपीस देख रही श्रीमती जी और स्टडी टेबल पर होमवर्क कम्पलीट करते बेटे यश के कान खडे़ हो गए थे मेरा सचिन सर के साथ वार्तालाप सुनते हुए। सचिन सर के साथ बातचित पूरी हो जाने के बाद भी मैं उतना उत्साहित नहीं हो रहा था जितना कि एक आम इंसान हो जाया करता है आमतौर पर इस तरह का ऑफर मिलने पर। मोबाईल चार्जिंग पर लगाया और टीवी पर तात्कालिक ख़बरों का विश्लेषण देखने लगा।
कुछ देर तक श्रीमती जी और मेरा बेटा दोनों ही चुप रहे मग़र कुछ ही मिनटों के अंदर क्या कानाफूसी की कि बेटे ने मेरे हाथ से रिमोट लेकर टीवी बंद कर दिया और मुझसे रुबरू होकर पूछने लगा। किसका फ़ोन था पापा? कहीं जा रहे हो क्या दोस्तों के साथ? अरे कुछ ख़ास नहीं। मैने इंकार में सर हिलाते हुए कहा। परंतु श्रीमती जी ने मुझे टोकते हुए कहा – ख़ास कैसे नहीं? सचिन सर से ही बात कर रहे थे न अभी? हम लोगों ने सब सुन लिया है। अमरकंटक जा रहे हैं न स्कूल के जेंट्स स्टाॅफ पिननिक मनाने? मैने बिना कुछ कहे ही मुस्कुराते हुए सिर हिला दिया। पापा आपको जाना ही चाहिए अपने दोस्तों के साथ इस तरह की आउटिंग में। इसी बहाने डेली रुटीन से थोडा़ चेंज हो जाता है... बेटे ने कहा। तुम लोग तो जानते ही हो कि जितने लोग जा रहे हैं उनमें से कोई भी मेरे जोड़ का नहीं है। सभी मेरे से चार-चार पाँच-पाँच साल छोटे हैं। एक बात और कि मैं तो ठहरा थोडा़ रिजर्व क़िस्म का इंसान। उन लोगों के साथ कभी मौजमस्ती या तफ़री की नहीं है। फ़ालतू में वो लोग बोर हो जाएँगे और तुम लोग भी घर में अकेले रह जाओगे। वैसे भी मैं बिना फैमिली के कहीं आता जाता नहीं हूँ। सभी भले न जाएँ पर तुम्हारी मम्मी को तो ज़रूर ही ले जाता हूँ। मेरे से नहीं हो पाएगा यार, रहने दो इस बार, अगली बार देखी जाएगी। एक साँस में अनगिनत तर्क गिना गया था बेटे की बात का जवाब देते-देते। मेरी श्रीमती जी जो गौर से मेरे चेहरे के भावों को पढ़ रहीं थी उन्होंने कहा – हो गया बिना वजह का तुम्हारा एक्सपलेनेशन। अब मेरी बात सुनों! वैसे भी लोग बोलते हैं कि तुम तो बीबी की ही बात सुनते हो और जो वो बोलती है उस पर चलते हो, तो आज आख़िरी बात सुनों और पिकनिक जाने के लिए हाँ कर दो। हाँ पापा सचिन सर से हाँ बोल दो। अमरकंटक बहुत ही अच्छी जगह है। वहाँ घूमने में बडा़ ही मजा़ आएगा। मेरे कई दोस्त वहाँ जा चुके हैं – मेरे बेटे ने ज़ोर देते हुए कहा।
मैने कहा ठीक है... देखता हूँ। देखता हूँ बोलने से काम नहीं चलेगा मैं फ़ोन लगाकर देता हूँ आप ख़ुद ही जाने के लिए हाँ बोलो। कहते हुए यश ने मोबाईल मेरे हाथों में पकडा़ दिया।
फ़ोन कान पर लगाकर मैं काॅल उठने का इंतजा़र करने लगा तभी दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई – गुड ईवनिंग सर! तो बताइए आपने क्या डिसाईड किया? सचिन सर ने गर्मजोशी के साथ पूछा। मैडम और बच्चे दोनों ज़िद कर रहे हैं, वैसे आप तो जानते ही हैं कि बिना फैमिली के मैं कहीं भी जाता आता नहीं – मैंने सचिन सर से कहा। आप चलिए तो बहुत मजा़ आएगा। पीके डीके एसपी सभी लोग जा रहे हैं सचिन सर ने कहा। ठीक है देखता हूँ। पीछे से मेरी बात सुन रहे मेरे बेटे ने कहा – सर! पापा ज़रूर जाएँगे, आप कल सबेरे फ़ोन कर दीजिएगा, मैं ख़ुद उन्हें छोड़ने चला आऊँगा जहाँ आप बोलेंगे। बेटे की बात सुनकर सचिन सर हँसे और ठीक है... ठीक है... कहकर फ़ोन रख दिया।
अब क्या था...। श्रीमती जी और यश दोनों लग गए मेरी पिकनिक की तैयारी में। यश ने ख़ुद ही अलमीरा से ढूँढ़कर मेरा जींस निकाला और श्रीमती जी उसकी मैचिंग वाली टी-शर्ट निकाल लाई। मस्त लगेगा पापा के ऊपर – यश बोला। सब लोग तैयारी में लगे हुए थे तो मैंने सोचा कि मैं भी अपना योगदान दे देता हूँ पिकनिक की तैयारी में। बरसों से संदूक में पडा़ रैगजीन का छोटा सा साईड बैग निकालकर साफ़ करने लगा। मुझे देखकर यश मुस्कुराया और बोला – ये वाला बैग आप ले जाएँगे अपनी पिकनिक पर? ये तो बिलकुल भी नहीं चलेगा बोलते हुए अमेजन से आँनलाईन मँगाया हुआ एकदम ही नए पैटर्न का भूरे रंग वाला बैक हैंगिग बैग निकालकर ले आया और उसके खंड खंड खोलते हुए... इसमें चार्जर – ईयर फ़ोन, इसमें टाॅवेल – बरमूडा़, इस बडे़ खंड में नाश्ता और चिप्स – कुरकुरे और इस बाहर वाली पाकेट में पानी का बोतल रखा जाएगा... समझाने लगा। श्रीमती जी और यश की तैयारी से मुझे पूरा यक़ीन हो गया था कि अब हर हाल में ये लोग मुझे पिकनिक भेजकर ही दम लेंगे।
आमतौर पर रविवार या हर छुट्टी के दिन हम सभी आराम से उठते हैं यानि कि थोडी़ देर तक सोते हैं लेकिन रविवार होने के बाद भी श्रीमती जी और यश मेरे से पहले ही उठ गए थे। मेरी नींद तब खुली जब मोबाईल सुबह छः बजे का अलार्म बजा रहा था। किचन से आ रही पोहे की ख़ुशबू ने मुझे झटपट नहाँ धोकर खाने की मेज के क़रीब ला दिया था। पापा! नाश्ता करके ज़ल्दी से तैयार हो जाओ आपका कपडा़ रखा है रैक पर। जूते वो स्पोर्ट्स वाले ही पहनना, पहाडी़ रास्तों पर चलने में बडा़ ही कंफर्टेबल रहता है यश बोल रहा था। नाश्ता करते करते सोचे जा रहा था चौवालिस साल के इंसान को ये दोनों माँ बेटे ऐसे तैयार करके भेज रहे हैं पिकनिक पर जैसे किसी चौदह पंद्रह साल के स्कूली बच्चे को उसके मम्मी पापा या भाई बहन भेजते हैं। बहरहाल मैं ख़ुश था इतनी तीमारदारी इससे पहले कभी नहीं हुई थी।
अचानक मेरा फ़ोन झनझना उठा। चार्जिंग प्वाईंट से मोबाईल निकालकर बात करते हुए मेरा बैग उठाकर मुझे और श्रीमती जी को बाहर आने का इशारा कर यश सामने वाला गेट खोलने लगा... बस पाँच मिनट में पहुँचते हैं सर। बैग स्कूटी के सामने टाँगकर मुझे पीछे बैठने को बोलने जा रहा था कि उसकी नज़र मेरे चेहरे पर पडी़... वह बोल उठा पापा! आपका चश्मा। चश्में की ज़रूरत नहीं... कहने मैं हाथ उठा ही रहा था कि वो बोल उठा .. मालूम है मालूम है वहाँ पढ़ना लिखना नहीं होगा लेकिन धूप आँखों पर पडे़गी तो आप परेशान हो जाओगे। मम्मी! मैंने जो ब्राऊन कलर का गाॅगल निकाल कर रखा था पापा के लिए वह जल्दी से लाकर दो, हम लेट हो रहे हैं।
थोडी़ देर में हम अप्पू गार्डन चौंक में थे। पापा आप यहाँ पर खडे़ रहो मैं दो मिनट में आया। कुछ ही देर में सचिन सर की गाडी़ सामने आकर रुकी। पीके, डीके, एसपी और ख़ुद सचिन सर सभी थे। सचिन सर ने कहा आप सामने आ जाइये सर। मैं सामने की सीट पर बैठकर इंतज़ार करने लगा। थोडी़ ही देर में यश आया और पाॅलीथीन की थैली पकडा़कर बाय करता हुआ चला गया इधर सचिन सर ने भी गाड़ी बढ़ा दी। अगस्त महीने की रिमझिम फुहार... ऊपर से स्टीरियो पर बजता गीत "रिमझिम गिरे सावन" हमारी यात्रा को बहुत ही ख़ुशगँवार बना दे रहा था। कुछ देर गाडी़ चलने के बाद जब हम लोग पेंड्रा गौरेरा मोड़ कटघोरा पर रुके चाय पानी करने, तब बहुत देर से मन में दबाकर रखी अपनी बात को डीके ने बोल ही दिया – बड़ा ग़ज़ब का दिख रहे हैं सर। जींस टी-शर्ट... पीके बात काटते हुए बोला – कुछ भी बोलो मेरे को तो सर का गाॅगल मस्त लग रहा है, एसपी जी कहाँ चुप बैठने वाले थे – मेरे को तो सर का हेयर स्टाईल बहुत अच्छा लग रहा है एकदम झकाऽऽऽस...। मौक़े पर अक्सर चौका मार देने वाले सचिन जी भला कहाँ पीछे रहने वाले थे बोले – हमें तो यार सर का पूरा गेटअप ही बेहतरीन लग रहा है। मैं क्या कहता... बडा़ ही आश्चर्यजनक एवं सुखद क्षण था मेरे लिए। स्कूल में रिजर्व रहने और सीनियर सिटिजन होने के कारण दोस्तों की तरह बातें करना और कमेंट्स सुनना और पास करना तो जैसे भूल ही गया था मैं गेवरा स्कूल से कोरबा आकर। आज लग रहा था कि क्यों मैंने अपने इन सहकर्मियों के साथ खुलकर बातें नहीं की। एक अनावश्यक मर्यादा की आड़ की ख़ातिर आख़िर मैं दोस्त तलाश क्यों न कर सका इनमें। मैं उनकी बाँतों का जवाब नहीं दे पाया बस इतना बोलकर रह गया कि ये सारा ताम झाम मैडम और यश की ही करामात है। अरे हम लोगों को प्रोफेसेनल लाईफ के साथ थोड़ा पर्सनल लाईफ भी जीना चाहिए। मैं बोल रहा हूँ आज सर से जैसा बात करना हो करेंगे और ख़ूब मस्ती करेंगे। एसपी और सचिन साहब भी एक सुर में बोले स्कूल का रिलेशन स्कूल में छोड़ दो यहाँ पर सभी दोस्त हैं एक चौदह पंद्रह साल का बच्चा जैसे मस्ती करता है वैसी ही मस्ती हम लोग करेंगे।
फिर क्या था अमरकंटक पहुँचने तक रास्ते भर रुकरुक कर सेल्फी लेते तो घाट किनारे चटाई बिछाकर जोक सुनाते हँसते हँसाते और जब भी गाडी़ चलती तो एक से बढ़कर गाने गाते वीडियो बनाते हम कब अमरकंटक पहुँच गए पता ही नहीं चला। अमरकंटक पहूँचकर हम लोगों ने दर्शन किया डीके भाई ने कुंड स्नान भी किया। जल प्रपात और कपिलधारा के मनोहारी दृश्य का भी साक्षात्कार किया। वापसी में विशालकाय जैन तीर्थ और शिवमंदिर का दर्शन किया और फिर से उसी मस्ती और आनंद वाले अंदाज़ में हम सभी अपने अपने घरों को वापस आए।
तब से बनी सहकर्मियों से दोस्तों में तब्दील हो चुकी हमारी टीम "टीम अमरकंटक" के नाम से मश्हूर हो गई। स्टाॅफ में चाहे किसी के यहाँ भी किसी भी प्रकार का सुख दुख हो वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में पीछे नहीं रहती। लाॅकडाउन की वजह से सीधे मिलना जुलना नहीं हो पा रहा है लेकिन आजकल के संचार के साधनों की बदौलत हम एक दूसरे के संपर्क में अवश्य रहते थे। हर साल मेरे जन्मदिवस पर टीम अमरकंटक ज़रूर मुझसे मिलती है और हम सभी सपरिवार मौज मस्ती करते हैं लेकिन इस बार की कोरोना महामारी ने हमारा सारा प्लान ही चौपट कर दिया।
सुबह से ही पारिवारिकजनों, मित्रों, साहित्यिक गुणीजनों का संदेश यहाँ तक की देश के लोकप्रिय अख़बार में साक्षात्कार छपा और बधाइयाँ बहुत मिलीं लेकिन एक भी मैसेज या काॅल टीम अमरकंटक की तरफ़ से नहीं आया। निश्चित रूप से मैं हताश था। डेली रुटीन के अनुसार जब मैं ट्रीटमेंट के लिए फिजियोलैब गया हुआ था तो अचानक डीके का फ़ोन आया – कहाँ हैं सर...? मैं आपके घर के पास खडा़ हूँ। मैं बोला भाई मैं तो फीजियोलैब में हूँ। मेरी बात सुनकर बिना कुछ कहे डीके ने फ़ोन काट दिया। लगभग दस मिनट बाद मेरे फ़ोन की रिंग एक बार फिर बजी। डीके लैब से बाहर आने को कह रहा था। मैं बिना किसी को बताए ही जब लैब के बाहर निकला तो पूरी टीम अमरकंटक को देखकर आश्चर्य में पड़ गया। एक ख़ूबसूरत सा गिफ़्ट देकर मुझे जन्मदिन की बधाई दी गई।
अपने अमरकंटक वाले अनुभवों से मैं पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि चाहे कैसा भी दुख हो, पीडा़ हो या परेशानी हो अगर अच्छे दोस्तों का साथ है तो आप आसानी से उबर सकते हैं उनसे। सच कहूँ तो अगर दोस्तों का साथ है तो किसी भी परेशानी के हल के लिए दवाई की नहीं बल्कि उनके साथ टपरी में बैठकर चाय पीने और गपशप करने की ज़रूरत है।
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