राखी का फ़र्ज़ - कहानी - सुशील शर्मा | रक्षाबंधन पर कहानी

राखी का फ़र्ज़ - कहानी - सुशील शर्मा | रक्षाबंधन पर कहानी | Rakshabandhan Story Hindi - Rakhi Ka Farz - रक्षाबंधन पर हिंदी कहानी
प्रकाश को आज अपनी बहिन के पास राखी बँधवाने जाना था। उसका मन बहुत निराश था जब भी प्रकाश अपनी बहिन के घर जाता था उसके अंदर एक लघुता की भावना आ जाती है, इसका मुख्य कारण उनके जीवन स्तर में ज़मींन आसमान का अंतर होना है। शहर के रईसों में उनकी गिनती है करोड़ों के मालिक राजनैतिक रसूख वाले और प्रकाश एक साधारण नौकरीपेशा वाला व्यक्ति। हालाँकि उसकी बहिन ने कभी भी इस बात का अहसास उसे नहीं होने दिया। प्रकाश के सभी भाई भी उच्च नौकरी पेशा एवं करोड़ों की आमदनी वाले थे। स्वाभाविक है उन लोगों के सामने प्रकाश की कोई हैसियत नहीं थी। बस इसी बात पर मन कचोट जाता था कि वह अपनी बहिन को अपने अन्य भाइयों जितने महँगे तोहफ़े नहीं दे सकता था।

प्रकाश ने पत्नी से कहा "रत्ना के लिए इस साल क्या ले जाऊँ"
"जो तुम्हारी इच्छा हो वैसे उन्हें हम क्या दे सकते हैं जितना दें उतना कम है।" प्रकाश की पत्नी ने उसकी  मनस्थिति भाँपते हुए कहा।
"इस बार तनख़्वाह अभी मिली नहीं है, बेटी को पैसे भिजवाने हैं। समझ नहीं आ रहा क्या करूँ।" प्रकाश ने  निराशा से कहा।
"रक्षाबंधन पर बहिन के घर खाली हाथ नहीं जाते उन्हें हज़ार पाँच सौ रूपये भी नहीं दे सकते।" प्रकाश ने अनमने भाव से कहा।
उसी समय रत्ना का फ़ोन आया बोली "भैया! आप सपरिवार राखी पर ज़रूर आना और मुझे एक प्यारा सा तोहफ़ा ज़रूर लाना और हाँ छोटे और मँझले भैया भी आ रहे हैं।"
प्रकाश ने उससे कहा "रत्न तेरा भाई तुझे कैसे भूलेगा मैं ज़रूर आऊँगा।"

रक्षा बंधन के दिन प्रकाश अपनी पत्नी एक महँगी सी साड़ी जो करीब एक हज़ार रूपये की थी लेकर अपनी बहिन के आलीशान बंगले पर पहुँचा। वहाँ का वैभव देख कर वह अपने को बहुत नीचा महसूस करने लगा लेकिन मन बहुत ख़ुश था कि उसकी बहिन रानियों जैसी रहती है।
प्रकाश के दोनों भाई भी आ चुके थे वो एक दूसरे से बहुत प्रेम से मिल रहे थे लेकिन प्रकाश के मन में बहुत द्वन्द था कि उसके दोनों भाइयों की तुलना में उसके उपहार की बहिन के घर पर हँसी न उड़े मन बहुत अशांत था।

रक्षाबंधन शुरू हुआ सबसे पहले छोटे भाई को राखी बाँधी उसने गिफ़्ट में एक हार दिया जिसकी क़ीमत करीब दो लाख रूपये थी। बहुत सुंदर हार था सब उस हार की प्रशंसा कर रहे थे, उसके बाद मँझले भाई ने बहिन को हीरे की एक अंगूठी दी जिसकी क़ीमत भी करीब डेढ़ लाख के आसपास थी। प्रकाश का दिल बैठ गया उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह कैसे इनके सामने अपना उपहार दे रत्ना के ससुराल वाले क्या सोचेंगे इतनी सस्ती साड़ी तो उनके यहाँ की नौकरानियाँ भी नहीं पहनती।
रत्ना मुस्कुराते हुए प्रकाश की ओर बढ़ी। प्रकाश का चेहरा मुरझाया सा था बनावटी हँसी के साथ प्रकाश ने अपना हाथ आगे बढ़ाया रत्ना ने उसे राखी बाँधी और तोहफ़े के लिए मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा प्रकाश ने काँपते हाथों से अपना बैग उठाया इतने में रत्ना ने प्रकाश के हाथ से बैग छीन लिया "मुझे भाभी ने बताया है आप मेरे लिए बहुत सुन्दर उपहार लाए हैं। मैं अभी पहन कर आती हूँ" रत्ना बैग को लेकर अंदर गई। वो क्षण प्रकाश के लिए बहुत विषम थे उसे अपने आप पर ग़ुस्सा आ रहा था साथ ही कुछ समझ में भी नहीं आ रहा था कि वो क्या करे।
रत्ना अंदर से जब बाहर निकली तो बहुत सुन्दर सोने की जड़ी वाली साड़ी पहने थी साथ में हाथों में सुन्दर सोने की चूड़ियाँ कानों में सोने के कुंडल, पाँव में सोने की पायल, माथे पर सोने की बिंदी बिलकुल राजकुमारी जैसी लग रही थी। "भैया इतना सुन्दर उपहार! आप वाक़ई में मेरे सबसे अच्छे भैया हो" रत्ना मुस्कुराते हुए मुझे देखा।

"पर ये सब..." प्रकाश हक्का बक्का रत्ना की और देख रहा था। "चलो भैया अब हमलोग सब खाना खाएँगे" उसने प्रकाश को बोलने नहीं दिया और सब लोग भोजन करने के लिए बैठ गए। वह इठलाती हुई सबको वो सारी चीज़ें बता रही थी उसके ससुराल वाले भी प्रकाश की तारीफ़ कर रहे थे और प्रकाश अपराधबोध से दबा जा रहा था।
प्रकाश की आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। आज उसकी बहिन ने उसके सम्मान की रक्षा की उसे मालूम था उसका ग़रीब भाई सबके सामने अपमानित होगा। ख़ुद को छोटा महसूस करेगा, भाई के सम्मान की रक्षा के लिए उसने ख़ुद इतने महँगे तोहफ़े प्रकाश के नाम से सबको दिखाए ताकि प्रकाश को नीचा न देखना पड़े।
जब प्रकाश वापिस जा रहा था तो प्रकाश की आँखों में स्नेह और कृतज्ञता के आँसू थे।
"रत्ना तू वाकई रत्न है" प्रकाश के स्वर में लड़खड़ाहट थी।
"भैया आपका सम्मान मेरे लिए हर चीज़ से ऊपर है" उसने मुस्कुराते हुए कहा।
रत्ना ने थैले में से उसकी भाभी की भेजी साड़ी निकाल ली एवं उसकी जगह वो सारे तोहफ़े जो उसने सबको प्रकाश के लाए हुए बताए थे रख दिए।

"नहीं रत्ना तूने इतना किया, इतना ही काफ़ी है। मुझे इन सब महँगी चीज़ों की ज़रूरत नहीं है और फिर तू मुझसे छोटी है तुझसे ये सब कैसे ले सकता हूँ।" प्रकाश ने प्रतिरोध करते हुए कहा।
"भैया आप स्वाभिमानी हैं, मुझे मालूम है। मैं आपको कुछ नहीं दे रही हूँ। मुझे मालूम है आप कुछ नही लेंगे ये सारी चीज़ें मैं अपनी भतीजियों को दे रही हूँ उनको देने का तो मुझे अधिकार भी है और हक़ भी है।" रत्ना ने ज़बरदस्ती वो सारे पैकेट एक नए बैग में रख कर मुझे विदा किया।
रास्ते में प्रकाश अपने आप बड़बड़ा रहा था" पगली तूने तो मुझे वो दे दिया जिसका क़र्ज़ तेरा भाई कभी नहीं उतार सकता, तूने मेरा सम्मान मेरा बड़प्पन बचा लिया"
प्रकाश की आँखों से अविरल धारा बह रही थी कलाई पर रत्ना की राखी चमक रही थी।

सुशील शर्मा - नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश)

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