पीयूष गोयल - दादरी (उत्तर प्रदेश)
ये लो पुस्तकें - कहानी - पीयूष गोयल
शनिवार, अगस्त 03, 2024
मुझे बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने का शौक़ रहा है, मेरे मम्मी पापा अच्छी तरह से जानते थे इसको पैसे दे दो, किताबें ज़रूर लेकर आएगा। मेरे पास क़रीब २५००-३००० पुस्तकों का संग्रह हैं। मेरे पापा सरकारी नौकरी में हैं, समय-समय पर नौकरी के लिए हस्तांतरण होता रहता था, और मैं लाइब्रेरी ही ढूँढ़ता और मुझे मिल भी जाती थी। आजकल बड़ा ही दुख होता हैं मोबाइल ने आने वाली पीढ़ियों को न सिर्फ़ पुस्तकों से दूर किया हैं बल्कि अपनों से भी। जहाँ मैं रहता था, आज से २०-२५ साल पहले मैं लाइब्रेरी में जाया करता था, वहाँ पर किताबों के साथ-साथ आपको नए लोग भी मिलते थे। वहाँ पर अक्सर ४५ साल के एक व्यक्ति भी आया करते थे, वे सरकारी नौकरी में थे, बहुत देर बैठ कर पुस्तकें पढ़ा करते थे और जब भी उनसे बात करता था बड़ा ही अच्छा लगता था। हर विषय पर उनसे बात की जा सकती थी। समय अपनी रफ़्तार से चलता हैं, मैं यांत्रिक अभियंता हो गया और नौकरी के लिए किसी और शहर चला गया, लेकिन लाइब्रेरी की यादें ताज़ा हो जाया करती थी। मेरी पहली नौकरी ग्रेटर नोएडा, फिर पिलखुवा चला गया। एक दिन अचानक पता चला कि मेरी नौकरी सोनीपत में एक अच्छी कंपनी में लग गई। पुस्तकों से प्रेम अभी भी था, अक्सर दिल्ली पुस्तक मेले में पुस्तकें लेने ही जाया करता था, कई बार ऐसा भी हुआ हैं पैसे के अभाव में पुस्तकें ख़रीद नहीं पाया। एक दिन रविवार के दिन सोनीपत के बाज़ार में घूम रहा था, दूर कहीं मुझे एक लाइब्रेरी दिखाई दी, मैं तुरंत सब काम छोड़ लाइब्रेरी जा पहुँचा, लाइब्रेरी में अंदर घुसतें ही “ये लो पुस्तकें” एक बूढ़े आदमी ने कहा "तुम्हारे मतलब की हैं।" "अरे कमाल हो गया आप तो वो ही हैं जब हम साथ-साथ ३०-३५ साल पहले लाइब्रेरी में पढ़ते थे, और कई विषयों पर बातें भी करते थे।" "हाँ-हाँ मैं वो ही हूँ यहीं का रहने वाला था वहाँ तो नौकरी में था, देखो क्या कमाल हुआ हैं पुस्तकों को प्रेम करने वाले फिर मिल गए, तभी तो तुमको देखते ही बोला ये लो पुस्तकें तुम्हारे मतलब की क्योंकि मुझे पता हैं, आप किस तरह की पुस्तकें पढ़ते हैं।" बातों-बातों में पता चला ये पुस्तकालय उन्हीं का हैं, और इसके बाद मैंने ये निर्णय लिया कि मैं उन्हें अपने पुस्तक संग्रह से २०० पुस्तकें उनकी लाइब्रेरी को दूँ। शीघ्र ही देने जा रहा हूँ।
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