विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)
आज़ादी - कविता - विनय विश्वा
बुधवार, अगस्त 14, 2024
हम कितने आज़ाद हुए
ओ हिंद के वासी
हम कितने आज़ाद हुए?
भाषा से
बोली से
जाति से
कर्म से रिस्तों से नातों से
मतलब हम आज़ाद हुए हैं
की अपने को बाँध कर
आजादी के गिरह को रक्खे हैं
हम कितने आज़ाद हुए?
आज आज़ादी बूढ़ा हो चला है
क्या बूढ़े को रहना इस दुनिया
में मनाही है?
क्या उनकी ज़रूरतें पूरी हो चुकी है?
क्यों वृद्ध विमर्श चल रहा है?
बताओ न हिंद के वासी
तुम कितने आज़ाद हुए?
घर हो या बाहर
ऑफिस हो या बाज़ार
खेत हो या खलिहान
क्या हम अपनी परिधि में हैं
मतलब अपनी भाषा जो
भाव की भीख देती है
मतलब पूरा महल बनाती है
इंसान होने का
आप उसमें कहाँ हो
क्या अब तुम सचमुच आज़ाद हो गए हो?
मेरा उत्तर होगा नहीं–
हम अभी भी आज़ाद नहीं हुए
क्योंकि मैं अछूत हूँ
क्योंकि मैं लड़की हूँ
क्योंकि मैं किन्नर हूँ
क्योंकि मैं लताड़ा गया हूँ
इस पितृसत्ता समाज में।
हमें आज़ादी के मायने चाहिए जिसमें
हम आज़ाद होकर साँस ले
कबीर के अमरदेशवा
रैदास के बेगमपुरा की तरह
क्यों वर्चस्व वाला मुँह बनाए खड़े हो
तुम किस पर अड़े हो
बताओ आज़ादी के दीवाने?
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