पी॰ अतुल 'बेतौल' - कानपुर (उत्तर प्रदेश)
नारी: कोमलांगी नहीं दृढ़ - कविता - पी॰ अतुल 'बेतौल'
मंगलवार, अगस्त 20, 2024
एक झलक मिली थी तुम्हारी,
चिंताओं की लकीरें दिखी भारी।
ख़ुशियों पर धूल जमी है क्यों,
धूमिल क्यों दिख रही ख़ुशगवारी।
फिर आज बहुत विकल अकेले थे तुम,
अनमने भीतर से, हो खोए-खोए गुमसुम।
जग भरमाने को एक दर्दीली हँसी गा रहे,
जिसके ग़ायब हैं सुर, मिली न आज तरन्नुम।
चारो तरफ़ धूप बरसात की, ये है ख़ूब जलाती,
थोड़ी रिमझिम के बाद, फिर से है आ जाती।
मिली किसी छाँव में भी, राहत नहीं तुमको,
आस पास से उठती उमस तुझे है सताती।
लेकिन, तुम तो हुनर रखते हो शमशीर का,
मैंने जाना, वेग है तुममें लक्ष्य भेदी तीर का।
लिपटी हुई दामन में तुम्हारे, है कलम ब्रह्मा की,
ए नारी! बदल दो रुख, अब अपनी तक़दीर का।
हे धरनी! तू नारी है, तू माता है,
मानव जीवन की जनमदाता है।
तेरी आँखों में, क्यों तैर रहे हैं आँसू,
कौन अधम पापी, बहुधा तुझे रुलाता है।
स्नेह, लाड़ है तुममें, है प्रेम और ममता,
कृति ब्रह्माण्ड में अन्य, करे न तुझसे समता।
अमृत तेरे आँचल में, शक्ति का संचार करे।
कोमलांगी तेरे भीतर, भरी है कितनी दृढ़ता।
ख़ूब धीर धरी, अब न अश्रु स्वीकार करो,
स्वशक्ति पहचानो, अब उठ प्रतिकार करो।
है तेरा अधिकार 'बेतौल', अस्मिता अक्षुण रखना,
ओ दामिनी, बढ़ कर अरि का संहार करो।
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