दिव्या - कविता - प्रवीन 'पथिक'
सोमवार, सितंबर 16, 2024
अंधेरे के सिवा,
जीवन में कुछ नहीं है।
सुख, आनंद, आह्लाद, सौंदर्यता
कुछ भी तो नहीं है।
भय मिश्रित आशंका, बेचैनी और अंतर्द्वंद से
अच्छादित, जैसे हो गया है जीवन।
झरने, तालाब और बगीचों की मोहक छाया
आकर्षित नहीं करती।
उदासी और व्यर्थ चिंतन में ही,
सारा समय बीत जाता है।
पहले ऐसा था नहीं;
और ना ही ऐसी कल्पना थी।
जैसे चिंता, उदासी, अंतर्द्वंद्व, बेचैनी, ऑंसू
जैसे कोई शब्द ही नहीं थे जीवन में।
जीवन कितना सरल और सीधा था।
अभिधा में ही
हृदय मिलते थे।
आलिंगन भी अभिधा में ही होता था।
अब तो, दुनिया में जीना ही दूभर है।
शायद, इसीलिए
सन्यासी या साधक
सबका परित्याग कर,
चले गए होंगे किसी घने जंगलों में।
या हिमालय पर्वत पर,
शेष जीवन व्यतित करने के लिए...
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