अलका ओझा - मुंबई (महाराष्ट्र)
ख़ुशियों से ग़म तक - कविता - अलका ओझा
रविवार, सितंबर 08, 2024
ख़ुशियों की भी एक सीमा होती है
अधिक प्रसन्न होने का क़र्ज़
अधिक दुःख पाकर चुकाना पड़ता है
न जाने क्या है
कि मुझे आश्चर्य नहीं होता
मैंने हर स्थिति को जैसी आती हैं
वैसे ही स्वीकार कर लिया है
मुझे नहीं पता कि आगे क्या होना है
बस अपने को अच्छा ही होगा समझा लिया है
कभी कभी ख़ुशियाँ व्यक्ति के
ख़ुश होने से पहले ख़त्म हो जाती हैं।
कुछ ग़म आसुओं के बह जाने पर भी ख़त्म नहीं होते
एक अजनबीपन महसूस होता है ख़ुद से
शायद मैंने ख़ुद को जानने की कोशिश ही नहीं की
क्या पता था कि जितना हम ख़ुश हुए हैं
उससे कहीं अधिक ग़म हमारे क़िस्से में लिखा है
आज का हँस कर सोना ही
कल सुबह की आँसुओ में ख़त्म होगा
और परसों ये आँसुओ का सागर ख़त्म हो जाएगा
पर तुम्हारे ज़ख़्म हरे रहेंगे
जाने क्यों अब ख़ुश होने से डर लगता है
कहीं इस ख़ुशी के बाद
मेरे ग़म का पिटारा न खुल जाए
दुनियाँ कितनी सादी (साधारण) है
है नहीं बस दिखती है।
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