विपदा गढ़ी हुई है - कविता - कोमल 'श्रावणी'
शुक्रवार, सितंबर 27, 2024
ज़रा आज मैं इठलाती हूँ
तुम्हें शौक़ से बतलाती हूँ।
रणक्षेत्र की भूमि सजी हुई है,
आग ज्वाला रण खड़ी हुई है।
झूठे गान गूँज रहे,
देखो तो विपदा गढ़ी हुई है।
जो सोए हो तुम रणभूमि में,
युद्ध के हारे, कुपित खड़े हो।
तलवार स्वास पर बंधी हुई है,
देखो तो विपदा गढ़ी हुई है।
पर्वत के सीने पे चढ़ने को,
पत्थर पहाड़ से लड़ने को।
थर्राए डग, पाँव साधी हुई है,
देखो तो विपदा गढ़ी हुई है।
हुँकार उठाने को तुमको,
धरा धरणीधर पुकारते हैं।
रस छोड़ शृंगार, ये क़लम तुम्हें,
आज़ युद्ध भूमि में दहाड़ते हैं।
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