नंदनी खरे 'प्रियतमा' - छिंदवाड़ा (मध्यप्रदेश)
हम राही अब निकल पड़े - कविता - नंदनी खरे 'प्रियतमा'
मंगलवार, नवंबर 12, 2024
लेकर वक्त हाथों में
हम राही अब निकल पड़े
मंज़िल खासी दूर अभी है
महफ़िल काफी चूर अभी है
ये दिल भी मजबूर अभी है
फिर राहों में निकल पड़े
हम राही अब निकल पड़े
उड़ते पर को देख अभी लें
सिकुड़ते कांधे सेंक अभी लें
उम्मीदों के एक बल पर
आशाओं को घेर चले
राही मोह से मुख फेर चले
नीड़ नीड़ का बना बसेरा
जोगी जैसे डाले डेरा
हम कुछ इस ही विकल पड़े
राही अब घर से निकल चले
स्वप्न कहाँ अब चैन कहाँ है
दिन तो दिन अब रैन कहाँ है
खुली आँखे स्वप्न मटकते
लगते नैनों से नैन कहाँ है
अब राही यूँ विकल पड़े
राही मंज़िल को निकल पड़े
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