सूर्यकान्त शर्मा - ग्रेटर नोएडा (उत्तर प्रदेश)
खिड़की - कविता - सूर्यकान्त शर्मा
गुरुवार, नवंबर 21, 2024
घर में दीवार का एक ऐसा हिस्सा
जिसके दोनों ओर के नज़ारे अलग हैं,
बाहर से अंदर का कुछ अपना-सा
अंदर से बाहर का सब बिखरा-सा
वह एक छोटी-सी जगह
जो हमें बहुत कुछ बताती है।
हम भी अपने मद में चूर,
कभी लोहे की सलाख़ों से बंद कर देते हैं,
कभी लकड़ियों से, कभी जाली से,
और कभी-कभी तो कपड़ों के पर्दे लगाकर,
लेकिन उसका वजूद नहीं मिटता।
आदत से मजबूर है वह खिड़की
उसी से ही अंदर की हवा बाहर को जाती,
और बाहर की हवा अंदर है आती।
रोकने के तिलस्म तो बड़े-बड़े किए हैं, लेकिन
सभी के सभी विफल नज़र आते हैं।
उसी से ही आती हैं बाहर की आदतें बच्चों में
इसी से ही जाते हैं बाहर, परिवार के संस्कार भी,
दूर से झाँकते समाज में,
इस हरपल बदलते परिवेश में
कहीं-कहीं बुज़ुर्गों के रखे सामान नज़र आते हैं।
बाहर की झाड़-झंझाड़ से भरे इलाके
अंदर साफ़-सुथरा फ़र्श,
बाहर गालियों की आवाज़,
अंदर प्यार से संलिप्त बोल,
यह छोटा सा स्थान
अपने आप में संसार नज़र आता है।
लेकिन हम अक्सर बंद कर देते हैं,
वह खिड़की, जो हमें बाहर दिखाती है।
यूँ न बंद रखा करो इन खिड़कियों को,
यह निर्जीव ज़रूर है मगर,
नए सबेरे की धूप और रात की चाँदनी
इसी से आकर हमें जीने का मक़सद दे जाती है।
जज़्बातों के हाथों मजबूर हो जाते हैं हम,
फिर दुनिया के रंगों से बेख़बर हो जाते हैं हम।
इस कठिन समय की बहुत छोटी है उम्र
खोलो, अपनी खिड़की जो बंद रहती है,
आने दो बाहर की हवा भी अंदर,
जाने दो घर (मन) के तराने भी बाहर,
ज़िंदगी गुलज़ार नज़र आने लगेगी
मुस्कुराहट भी घर बनाने लगेगी।
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