टूटे सपनें - कविता - प्रवीन 'पथिक'
शुक्रवार, नवंबर 22, 2024
टूट गए हृदय के सपनें,
हो गया अश्रुमय जीवन।
थक गईं आशा चरण के,
वीरान पड़ गया मधुबन।
चाह की बहती नदी थी,
ख़ुशियों के पंख लगे थे।
एक होने का समय था,
ख़्वाब उर में सज रहे थे।
क्या हुआ यूॅं क्यों हुआ?
चाहत डूबी मॅंझधार में।
रोष भी छाई थी ऐसी,
अंधड़ उठा व्यवहार में।
चाह इतनी बढ़ गई थी,
पथ नहीं था अपरिचित।
सुखद क्षण पास ही थे,
कुछ हुआ ऐसा अचंभित।
हुए सिंधु के दो किनारे,
कश्ती फॅंसी मँझधार में।
लहरों ने पतवार थामी,
भंवर उठा जलधार में।
मन की गति भी ऐसी थी,
पाँव थे अंगार पर।
उर में उठते शत विचार,
ऑंखे टंगी दीवार पर।
शायद प्रारब्ध का खेल है,
नियति का तांडव नृत्य है।
कर्मों का यह भोग है या
भावनाओं का कृत्य है।
जो हुआ अच्छा हुआ,
सब यही तो कहते हैं।
मानकर विधान विधि का,
पथ पर आगे बढ़ते हैं।
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