मिट्टी में भी खेलते थे, बारिशों में भी नहाते थे - ग़ज़ल - रोहित सैनी | बचपन पर ग़ज़ल

मिट्टी में भी खेलते थे, बारिशों में भी नहाते थे - ग़ज़ल - रोहित सैनी | बचपन पर ग़ज़ल। Childhood Ghazal
अरकान: फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ा
तक़ती: 2122  2122  2122  2122  2

मिट्टी में भी खेलते थे, बारिशों में भी नहाते थे
जून क्या है, जनवरी क्या, रात-दिन बस मौज उड़ाते थे

घर बनाते फिर मिटाते फिर बनाते फिर मिटाते थे
हम कभी यारों मुक़द्दर को तो बस मिट्टी बताते थे

गाल रहते थे टमाटर की तरह तब लाल अक्सर ही
भाइयों-बहनों से लड़ते, मार खाते, मुस्कुराते थे

झूठ इस तरतीब से बोला किया करते थे यारों तब
दर्द कहते पेट का और हाथ माथे पे लगाते थे

तंग ओ' शैतानियों से माँ कभी तो रूठ जाती थी
रूठने पर माँ के रोते, हँसने पर माँ चहचहाते थे

शेर कहना, शेर सुनना, शेर हो जाना नहीं था तब
वक़्त का दरिया था और हम नाव काग़ज़ की चलाते थे

अब कहाँ वो चाँदनी है, अब कहाँ है चाँदना भी वो
उन दिनों तो हम कहानी सुनते थे, क़िस्से सुनाते थे

रोहित सैनी - जयपुर, (राजस्थान)

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