पछतावा - गीत - संजय राजभर 'समित'
रविवार, दिसंबर 15, 2024
आज बहुत पछताता हूॅं मैं,
नाहक उसे रुलाया था।
वो थी सच्ची प्रेम दिवानी,
आख़िर क्यों ठुकराया था?
लिए निवेदन घुटनों के बल,
बाॅंवरी गिड़गिड़ाई थी।
आकुलता थी मृगतृष्णा सी,
नयनों में गहराई थी।
पागल था मैं कली-कली का,
भॅंवरा मन बहलाया था।
वो थी सच्ची प्रेम दिवानी,
आख़िर क्यों ठुकराया था?
स्वयं ठगा सा पाता हूॅं अब,
सुंदरियों के मेले में,
आगे-पिछे भीड़ खड़ी पर,
तन्हा खड़ा झमेले में।
बदन नहीं है नींव प्रेम का,
समझ नहीं क्यूॅं पाया था।
वो थी सच्ची प्रेम दिवानी,
आख़िर क्यों ठुकराया था?
भरा हुआ है परिवार मगर,
प्यासी घटा है आज भी।
बात यह एक सिद्ध हो गई,
ढकता है प्रेम लाज भी।
वासना को ही प्रेम समझा,
मीठा चकमा खाया था।
वो थी सच्ची प्रेम दिवानी,
आख़िर क्यों ठुकराया था?
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