फ़ुर्सत से - कविता - मयंक द्विवेदी
बुधवार, दिसंबर 18, 2024
फ़ुर्सत से शहर तुम भी आना गाँव
पर जब भी आओ आना नंगे पाँव
देखों तो सफ़र इन पगडंडियो का
इस दो जून की जद्दोजहद का
इस धूप में कडी मशक्कत का
मुस्कान में छीपे अन्तर्द्वन्द का
मौत को मात देते मृत्युंज्य का
शहर कभी तुम भी आना गाँव
क्या तुमने भी देखा है कभी सुकून
या हो आपाधापियों में उलझे हुए
कहते है लोग शहर तुम उम्दा लगते हो
पर उस भिड़ में भी तन्हा लगते हो
देखो यहाँ बरगद में पंछियों का गाँव
देखो नदियाँ में बहती बलखाती नाँव
देखो तो झुमते पंछियों का कलरव
देखो ख़ूबसूरत उत्पल भरा ताल
चखना अमराईयों के रसीले आम
देखो तो ढलती हुई सिंदूरी शाम
शहर कभी तुम भी आना गाँव
देखो टपकती घास फूस की छत
देखो चेहरे की शिकन में भी उल्फ़त
बुझे हुए चूल्हों में पेट की जलती आग
देखों वो रातों के जलते बुझते चराग
शहर कभी तुम भी आना गाँव
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