कर्ण: सूर्यपुत्र की गाथा - कविता - चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव

कर्ण: सूर्यपुत्र की गाथा - कविता - चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव | Kavita - Karna: Suryaputra Ki Gaatha - Chakraverti Ayush Srivastava | Hindi Poem About Karna. कर्ण पर कविता
(यह काव्य कर्ण के जीवन के उतार-चढ़ाव, उनके संघर्ष, त्याग और वीरता की गाथा प्रस्तुत करता है। यह न केवल उनके शौर्य का गुणगान है, बल्कि समाज के उस दृष्टिकोण पर भी प्रकाश डालता है, जिसने उन्हें बार-बार अपमानित किया।)

पंक्तियाँ:
तप्त धरती का वह अंकुर, जो सूरज से शक्ति लाया,
नीच कुल का कहकर जग ने, हर अवसर पर उसको ठुकराया।
फिर भी तेजस्विता न हारी, वह रण का सच्चा राजा था,
मृत्यु से पहले ही जिसने, अमरत्व को अपनाया था।

सर्ग 1: जन्म और पहचान
(कर्ण के जन्म की गाथा, उनका सूर्यपुत्र होना, और कुंती द्वारा उन्हें त्यागने की पीड़ा का वर्णन।)

सूरज के ताप से जन्मा बालक,
धरती का आँचल था पहला आलक।
माँ ने छुपाई जो उसकी पहचान,
वही बना जीवन भर की कहानी।

गंगा की लहरें गवाह बनीं,
विरह की व्यथा में डूबी घनी।
कुंती ने छोड़ा उसे बेसहारा,
विधि ने रचा यह विचित्र नजारा।

आकाश गूँजा, धरती भी काँपी,
भाग्य ने लिखी थी ऐसी तुकाँपी।
राजवंश का वह था एक लाल,
पर छूट गया उसे कुल का जाल।

नाज़ुक से हाथों में थी शक्ति,
सूर्य की किरणों से पाई भक्ति।
धरती के गोद में पलता रहा,
न्याय को भीतर ही बलता रहा।

मोह और ममता से वंचित हुआ,
अपनों से ही कर्ण निष्कासित हुआ।
अधिकारों से उसका हर वंचन,
बनता गया उसके जीवन का कारण।

सूरज ने तपा पर छोड़ा न उसे,
धरती ने सहेजा पर तोड़ा न उसे।
भाग्य ने बनाया उसे अद्वितीय,
पर अपमान ने किया उसे अनमोल।

सारथी अधीर, पर मन में धीर,
अंधेरे में भी वह रहा गंभीर।
जो छोड़ा गया, वह उठा आसमान,
अपना भाग्य ख़ुद रचा अनजान।

सूर्यपुत्र वह दैविक प्राणी,
जिसकी क़िस्मत थी जग में अज्ञानी।
न कोई राजा, न कोई रंक,
अपनी पहचान के लिए वह बना नायक।

जिसे जगत ने न अपनाया,
दानवीर ने सबको गले लगाया।
माँ ने छोड़ा, पर मन न छोड़ा,
सूरज ने दिया उसे अमृत तोड़ा।

कुंती के आँसू थे बेबस गवाह,
उसके अंतर्मन का सुनसान प्रवाह।
जो सूर्यपुत्र था, वह गुमनाम हुआ,
पर नियति ने उसका सम्मान किया।

जो सूरज की ज्योति से बना,
वह अमावस के अंधकार में तना।
उसका जन्म, उसकी पहचान,
बना कालचक्र का अमिट प्रमाण।

धरती ने गढ़ा, गंगा ने सहेजा,
पर अपनों का साथ उसने न देखा।
वह संघर्ष की कहानी था,
जो हर युग का अभिमानी था।

रथी वही, जो जग ने ठुकराया,
वीर वही, जिसने सबको अपनाया।
उसके जीवन का यह आरंभ,
था महाभारत के युद्ध का तंत्र।

अपमान ने उसे दृढ़ बनाया,
उसने हर बंधन से मन को छुड़ाया।
अपने अस्तित्व का जब उसने भान किया,
तब सूरज का पुत्र महान हुआ।

सूर्यपुत्र का यह आरंभ,
था त्याग, तपस्या और धर्म।
जो माँ ने छोड़ा, वही बन गया,
धरा का वीर, जो सबकी पहचान बना।
***

सर्ग 2: शिक्षा और अपमान
(द्रोणाचार्य और परशुराम से शिक्षा प्राप्त करने की कथा और बार-बार जाति के कारण अपमानित होने की पीड़ा का वर्णन।)

विद्या का दीप जलाने चला,
कर्ण हर द्वार पे झुकाने चला।
पर कुल के प्रश्नों ने रोका उसे,
स्वाभिमान का सागर रोया सदा।

द्रोण ने देखा पर मुँह फेर लिया,
जाति ने नायक को ठुकरा दिया।
उसका परिश्रम, उसका समर्पण,
बनकर रह गया बस एक क्षण।

परशुराम के शरण में पहुँचा,
अपना दर्द हृदय में उसने पिंछा।
ब्राह्मण बनकर गुरु से सिखा,
अधिकार छीनने की ठानी दिशा।

शस्त्र विद्या का वरदान मिला,
पर सत्य का जब प्रमाण मिला।
परशुराम का क्रोध जला,
और कर्ण का भाग्य हिला।

गुरु का शाप भी झेल लिया,
सूर्यपुत्र ने हर विष पी लिया।
अपमान की ज्वाला में तपता रहा,
अपने सम्मान को संभालता रहा।

मस्तक ऊँचा, पर मन बोझिल,
कर्ण का जीवन था यूँ मुश्किल।
पर संघर्ष ने दी नई शक्ति,
धैर्य और कर्म की पूर्ण भक्ति।

द्रोण के शिष्य उसे न माने,
जाति के कारण सबने ताने।
जो शिक्षा से बढ़कर महान था,
वह अपमान से बना महान था।

शर संग्राम का धनुर्धर बना,
जो स्वयं के बल पर खड़ा रहा तना।
पर समाज के बंधन हर पल,
उसके सपनों को देते कुचल।

राजा न था, पर रंक न था,
अपमान सहा, पर दीन न था।
कर्ण का तप और तपस्या,
जीवन की थी उसकी अभिलाषा।

जिसे जगत ने हारा समझा,
उसने हार में ही जीत रचा।
विद्या का वह अमूल्य भंडार,
जो संघर्ष का था प्रतीक अपार।

शस्त्र उठाए, पर सत्य न छोड़ा,
हर वचन को उसने अमृत तोड़ा।
जो द्रोण न सिखा सके उसे,
उसने स्वयं बनाया उसे।

अपमान ने उसे तपाया था,
उसका संकल्प और बढ़ाया था।
धैर्य और कर्म का वह दर्पण,
हर युग में अमर है उसका जीवन।

कुल का बंधन, जग की घात,
पर कर्ण के मन में विश्वास।
उसकी विद्या, उसकी ताक़त,
बन गई हर व्यथा की राहत।

उसका शौर्य, उसका अभिमान,
बन गया रणभूमि का गुणगान।
पर मन में छुपा दर्द का सागर,
हर क़दम पर जग ने मारा था डगर।

विद्या का दीपक जलता रहा,
अपमान का सागर छलकता रहा।
कर्ण का जीवन बना प्रेरणा,
जो अंधकार में लाया ज्योति पुंज।
***

सर्ग 3: दानवीर का यश
(कर्ण के अद्वितीय दानवीरता, उसकी उदारता और लोगों के दिलों में स्थान बनाने की कथा। साथ ही समाज द्वारा उसे बार-बार अपमानित किए जाने की व्यथा का वर्णन।)

दानवीर कहलाया वो जग में,
सूरज का तेज़ था उसके मग में।
हर याचक की झोली भर देता,
अपनी हर इच्छा को हर लेता।

स्वर्ण से भरा हुआ उसका हृदय,
दुश्मन भी उसका करता सादर नमन।
अपमानों से झुका नहीं मस्तक,
उसने सिखाया हर दर्द का सबक़।

किसी ने माँगा धन, किसी ने मान,
कर्ण ने त्यागा हर अभिमान।
जो भी आया द्वार पे उसके,
खाली न लौटा कोई भी झोले।

सूर्य के तेज़ से पाई जो शक्ति,
दान में दिखती थी उसकी भक्ति।
हर हाथ को भर देता अनमोल,
पर मन से सहता था व्यथा का बोल।

राजाओं ने उसे न अपनाया,
पर दानवीर का नाम जग में छाया।
मिट्टी में छुपा वह अनमोल रतन,
हर दिल में बना उसका अमिट वतन।

अपमान के शूल सहकर भी,
मुस्कान से स्वागत करता तभी।
जो भी याचक आया उसके द्वार,
उसने सिखाया उदारता का संसार।

धनुष उठाया, तो रण में अमर,
हृदय दिखाया, तो दान में अद्वितीय।
वह योद्धा था, परंतु महान,
जिसकी दानवीरता से जग हुआ धनवान।

कुंती ने छुपाई जो उसकी पहचान,
उसने मिटा दी हर जाति की सीमा।
दानवीरता से रचा इतिहास,
जो बन गया मानवता का प्रकाश।

अपना कवच और कुंडल दिया,
रक्त की बूँद-बूँद उसने पिया।
हर त्याग ने उसे महान बनाया,
पर अपमान का सागर भर आया।

दुर्योधन ने जब उसे अपनाया,
उसने मित्रता का धर्म निभाया।
पर अपनों ने छोड़ा उसे अकेला,
कर्ण ने जग को बनाया उजेला।

नियति के खेल से जो टूट न सका,
दानवीरता का वह दीपक बुझ न सका।
अपमान से बना वह और प्रखर,
दानवीरता से जग में अमर।

हर युग में गूँजेगा उसका यश,
दानवीरता से भर देगा हर कक्ष।
अपनी पीड़ा को जो छिपा गया,
दान का अमृत जग को पिला गया।

जो भी आया उसके जीवन के पास,
वह चला गया सुखी, भरकर विश्वास।
दानवीरता की यह अनूठी कथा,
है कर्ण की उदारता की व्यथा।

अपमानों ने उसे तपाया था,
दानवीरता ने उसे गढ़ा था।
हर युग में रहेगा उसका नाम,
जो सिखाएगा मानवता का धर्म।

कर्ण का जीवन था त्याग का प्रतीक,
दानवीरता का था वह अद्वितीय।
उसके दान और संघर्ष का मेल,
हर दिल में बसा उसकी कथा का खेल।
***

सर्ग 4: मित्रता और संघर्ष
(दुर्योधन और कर्ण की मित्रता का वर्णन, उनके बीच के गहरे संबंध और कर्ण के लिए दुर्योधन द्वारा किए गए त्याग। साथ ही, कर्ण का दुर्योधन के प्रति अटूट समर्पण।)

रणभूमि में जब ठुकराया गया,
कर्ण का मान वहाँ छुपाया गया।
दुर्योधन ने बढ़ाया जो हाथ,
मित्रता का हुआ वहाँ आरंभ।

जाति से परे, कुल से अलग,
दुर्योधन ने बनाया उसे बल।
राजसिंहासन का दिया सम्मान,
कर्ण के हृदय में जगाया अभिमान।

दोनों की मित्रता थी अनोखी,
समर्पण में जैसे गंगा की रोशनी।
जहाँ समाज ने हराया उसे,
दुर्योधन ने अपनाया उसे।

कर्ण ने जीवन अर्पण कर दिया,
मित्र का हर सपना सत्य कर दिया।
वचन के लिए त्यागा अपना स्वाभिमान,
मित्रता के लिए झुका हर अभिमान।

दुर्योधन का सहारा था कर्ण,
दोनों ने साथ लिखा युद्ध का वर्ण।
जहाँ छल-कपट ने घेरा था,
वहाँ मित्रता का दीप जला था।

कर्ण का समर्पण, दुर्योधन का मान,
दोनों के जीवन का था यह वरदान।
जो मित्र के लिए कुछ भी कर सके,
वह कर्ण था, जो जग में अमर हो सके।

दुर्योधन ने दिया कर्ण को राज्य,
मित्रता में देखा धर्म का कार्य।
जो अपमान सहा, वह बलिदान बना,
मित्र का साथ कर्ण का जान बना।

मित्रता के लिए किया हर त्याग,
मित्र के साथ खड़ा हर भाग।
जो झूठा था, उसे सच बनाया,
जो अपमानित था, उसे गले लगाया।

दुर्योधन के लिए कर्ण बना कवच,
दोनों का संबंध था अटूट और सच्चा।
मित्रता का यह अनुपम आदर्श,
युगों-युगों तक देगा यह संदेश।

कर्ण ने झेला हर अपमान,
पर मित्रता में रखा हर मान।
धर्म-अधर्म से परे था उसका समर्पण,
मित्र के लिए था उसका जीवन अर्पण।

हर सभा में जहाँ कर्ण खड़ा,
मित्र का बल बना वह बड़ा।
कुरुक्षेत्र का जब आया प्रांगण,
दोनों मित्र थे संग्राम के आँगन।

दुर्योधन ने जिस पर भरोसा किया,
कर्ण ने वचन को सजीव किया।
उनकी मित्रता का वह आलोक,
था अंधकार में जैसे दीपक का संजोग।

दुर्योधन के लिए दिया हर दान,
मित्रता में कर्ण ने छोड़ा स्वाभिमान।
जो समाज ने उसे न दिया,
मित्रता ने उसे वह मान दिया।

दोनों ने साथ देखे जो स्वप्न,
कर्ण ने किए पूर्ण हर कल्पन।
मित्रता के इस पावन धागे में,
कर्ण के त्याग की कथा जागे।

मित्रता का यह अमिट प्रतीक,
कर्ण-दुर्योधन की गाथा अनूठी।
जहाँ स्वार्थ नहीं, बस त्याग रहा,
मित्रता का यह आदर्श सदा जीवंत रहा।
***

सर्ग 5: कुरुक्षेत्र का आह्वान
(कर्ण की वीरता, उसकी युद्ध-कला और उसकी अडिग प्रतिज्ञा का वर्णन। धर्म और अधर्म के द्वंद्व के बीच उसकी भूमिका को वीर रस के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।)

जब कुरुक्षेत्र का रण घोषित हुआ,
धरा पर जैसे प्रलय आया हुआ।
योद्धा बने देवों के सम,
कर्ण खड़ा था, अडिग हर दम।

रणभूमि में उठाया धनुष जब,
सूर्य-सा तेज़ झलका नभ।
हर योद्धा की रग काँप उठी,
कर्ण के हाथों की शक्ति दिखी।

बाण चलाए जैसे तूफ़ान,
धरा गूँज उठी उसके बलिदान।
हर शत्रु ने सहा उसका प्रहार,
उसके शौर्य का नहीं कोई पार।

धनुर्धर ऐसा कि स्वर्ग भी झुके,
रणभूमि में उसके बाण से दुखे।
जिसने भी ललकारा उसका नाम,
कर्ण ने दिखाया युद्ध का धाम।

पांडव सेना में मची थी त्राहि,
कर्ण की वीरता ने भरी आहट।
जो सामने आया, वह गिरा धरा पर,
कर्ण का क्रोध बन गया अमर।

धर्म का द्वंद्व था मन के भीतर,
पर अधर्म का संकल्प लिया मित्र।
शौर्य दिखाने को था कटिबद्ध,
मित्र के लिए था वह हर दम स्थिर।

रणभूमि में बढ़ा जैसे प्रचंड पवन,
उसके वार से थर्राया गगन।
शत्रु भी उसके सम्मुख झुके,
कर्ण की शक्ति को सबने परखे।

सूर्यपुत्र का जब चला गदा,
धरती काँपी, गूंज उठा सारा जहाँ।
अर्जुन के संग भीषण भिड़ंत,
रण में उठा कर्ण का संकल्प।

हर प्रहार उसका था अचूक,
शत्रु दल में मच गया दुःख।
रणभूमि में खड़ा वो अकेला,
युद्ध की ज्वाला में बन गया उजेला।

मात्र योद्धा नहीं, वह था युद्ध का देव,
जिसकी वीरता ने रचा इतिहास।
धर्म-अधर्म के बीच वह खड़ा,
हर बाण से शत्रु दल को नष्ट किया।

कवच-कुंडल के बिना भी अडिग,
उसके हृदय में था साहस सघन।
अपनी प्रतिज्ञा पर रहा दृढ़,
रण में दिखाया उसने अपना मर्म।

धरती ने भी किया उसका सम्मान,
रणभूमि ने गाया उसका गुणगान।
शत्रु को न छोड़ा उसने कभी,
वीरता में उसका नाम अमिट लिखी।

कर्ण की भुजाओं का बल प्रबल,
हर शत्रु के लिए था वह विकराल।
मृत्यु भी डरकर पीछे हटी,
जब कर्ण ने रणभूमि में हुँकार भरी।

ध्वंसकारी था उसका बाण,
शत्रु दल के लिए बना काल समान।
रण का वह अद्वितीय नायक,
कर्ण बना मानवता का शिक्षक।

कर्ण का यश रण में बढ़ा,
हर योद्धा ने उसका बल देखा।
सूर्यपुत्र का यह वीर प्रचंड,
कुरुक्षेत्र का बना वह अनंत।
***

सर्ग 6: धर्म का संघर्ष - कर्ण और अर्जुन का अंतिम युद्ध
(इस सर्ग में कर्ण और अर्जुन के मध्य हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। धर्म और अधर्म के द्वंद्व के साथ, कर्ण की वीरता और उसका अंतिम संघर्ष वीर रस में प्रस्तुत है।)

जब रणभूमि में अर्जुन आया,
हर योद्धा का साहस थर्राया।
कर्ण खड़ा था, अडिग अभिमान,
युद्ध का वह लिखने चला नया विधान।

सूर्य-सा तेज़, चंद्र-सा शीतल,
कर्ण का क्रोध बना विकराल।
अर्जुन को देख जो हुंकारा,
धरती ने झेला युद्ध का धारा।

धनुर्धर दोनों, शूर दोनों,
पर धर्म-अधर्म के मोड़ दोनों।
एक सखा के लिए लड़ रहा था,
दूसरा धर्म का व्रत लिए बढ़ रहा था।

अर्जुन ने छोड़े बाण अनेक,
कर्ण ने दिया उन्हें प्रचंड झेल।
प्रत्येक प्रहार उसका था वज्र समान,
धरा भी काँपी, थम गए प्राण।

घोड़े हिनहिनाए, रथ डगमगाए,
शत्रुओं के दल भय से काँप जाए।
कर्ण का रथ जैसे प्रचंड ज्वाला,
रणभूमि बना महाकाल का हाला।

दोनों धनुर्धरों में मचा तूफ़ान,
हर बाण से थर्राई कुरु की जान।
कभी अर्जुन ऊपर, तो कर्ण प्रबल,
रणभूमि में दोनों थे अडिग अचल।

कर्ण का कवच अब नहीं रहा,
फिर भी हृदय में साहस सजा।
हर बाण ने उसके बल को परखा,
फिर भी वह खड़ा, मृत्यु को ठहरा।

अर्जुन के बाणों का किया सामना,
हर वार का दिया उसने तगड़ा जवाब।
धर्म-अधर्म का यह संग्राम,
कर्ण ने दिया मित्रता का प्रमाण।

धरा ने देखा जब उसका क्षय,
तब भी कर्ण न झुका, रहा न निराश।
धर्मराज भी देख उसे हुए स्तब्ध,
कर्ण की वीरता थी अद्वितीय स्पष्ट।

रथ का पहिया जब धंसा धरा में,
कर्ण का साहस फिर भी बना रहा।
वह नहीं रुका, न डर का नाम,
मृत्यु से लड़ता, था उसका प्रणाम।

कृष्ण ने अर्जुन को दिया उपदेश,
"धर्म के लिए न करो विलंब।"
अर्जुन ने छोड़ा तब वह बाण,
कर्ण का अस्त हुआ उसी प्रांगण।

सूर्यपुत्र गिरा, पर अमर हुआ,
वीरता में उसका नाम अमिट हुआ।
मृत्यु ने किया उसका सम्मान,
कर्ण बना रणभूमि का अमर प्रमाण।

धर्म-अधर्म का था यह संग्राम,
कर्ण ने लिखा अपनी वीरता का नाम।
जो मिटा नहीं, जो रुका नहीं,
सूर्यपुत्र का यश कभी झुका नहीं।

मित्रता का वह पावन दीपक,
धर्म के लिए बना वह प्रेरक।
कुरुक्षेत्र में गूँजा उसका जयघोष,
कर्ण का बलिदान बना अमर आलोक।

वीर रस में अमिट कर्ण की कथा,
धर्म-अधर्म में बसा उसका चरित्र।
सूर्यपुत्र का यह अंतिम जयकार,
रणभूमि में गूँजा उसका अमर विचार।
***

सर्ग 7: कर्ण का बलिदान और अमरता
(इस सर्ग में कर्ण के बलिदान के बाद की घटनाओं, उसकी अमरता, और उसके जीवन के उच्च आदर्शों का वर्णन किया गया है। यह सर्ग शांत रस और वीर रस का संगम है, जिसमें कर्ण के बलिदान को इतिहास में अमर किया गया है।)

कर्ण गिरा पर अमर हो गया,
रणभूमि में यश उसका खो गया।
सूर्य ने देखा पुत्र का पतन,
अधर्म के संग, धर्म का चिंतन।

धरा ने भी अश्रु बहाए,
सूर्यपुत्र को न भूल पाए।
शत्रु-दल भी मौन खड़ा,
वीर का ऐसा अंत न पड़ा।

कृष्ण ने किया तब उद्घोष,
"कर्ण है धर्म का सच्चा प्रकाश।
उसने जो पाया, वह त्याग महान,
मित्रता में अर्पित किया जीवन दान।"

युद्धभूमि में छाया सन्नाटा,
कर्ण के पतन से टूटा हर नाता।
धर्मराज भी झुके उसके आगे,
कर्ण के गुण सबने पहचाने।

जिसने दिया मित्रता का मान,
उसने सहा जीवन का हर अपमान।
धर्म-अधर्म के इस युद्ध में,
कर्ण बना मानवता का अमर चित्र।

पांडवों ने झुकाया शीश,
कर्ण की गाथा गूँज उठी।
जो शत्रु था कल तक रण में,
वह आज बना गुरु उनके मन में।

सूर्यपुत्र का अंतिम प्रणाम,
उसकी अमर गाथा बनी आम।
हर योद्धा ने लिया उसका नाम,
रणभूमि में उसकी हुई जयध्वनि तमाम।

कृष्ण ने किया तब सब प्रकट,
"कर्ण था कुंती का वीर सुत।
धर्म के लिए उसने जो दिया,
वह जग को अमर संदेश बन गया।"

पांडवों के हृदय में व्यथा बढ़ी,
माता कुंती की आँखें नम हुईं।
जो भाई था, वह शत्रु बना,
कर्ण का बलिदान सबको सिखा।

धर्म ने देखा उसका त्याग,
अधर्म ने देखा उसका परित्याग।
कर्ण का चरित्र बना अमर,
हर युग में उसका यश है अटल।

सूर्य ने पुत्र को गोद लिया,
स्वर्ग में उसको स्थान दिया।
देवताओं ने किया उसका सम्मान,
कर्ण का हुआ दिव्य आह्वान।

रणभूमि में उसका यश खिला,
उसकी गाथा से समय झुका।
हर योद्धा ने ली उसकी शपथ,
कर्ण बना साहस का प्रतीक।

उसका जीवन त्याग का था,
मित्रता, वीरता का पाठ था।
धर्म-अधर्म के इस संग्राम में,
कर्ण बना आदर्श इंसान में।

जो गिरा, वह कभी न हारा,
उसके यश ने जग को सँवारा।
वीर रस में लिखी उसकी कहानी,
अमर बनी उसकी हर निशानी।

कर्ण के बलिदान का हुआ अंत,
पर वह बना युगों का संत।
सूर्यपुत्र का अमर इतिहास,
कर्ण का जीवन बना महान प्रकाश।
***

समर्पण: कर्ण को नमन
(यह भाग कर्ण के त्याग, वीरता, और उनके अद्वितीय जीवन संघर्ष को समर्पित है। यह उनके व्यक्तित्व के उन गुणों को उजागर करता है, जो युगों-युगों तक प्रेरणा देते रहेंगे।)

यह गाथा है उस वीर की,
जो हारकर भी अमर हुआ।
सूर्यपुत्र वह अद्वितीय योद्धा,
जिसका जीवन एक महा काव्य बना।

मित्रता में जिसने प्राण त्यागे,
धर्म-अधर्म के बीच रह सधे।
अपमान सहा, पर सिर न झुका,
हर घाव को उसने अपना मुकुट बना।

वह योद्धा, जो रथविहीन भी,
रणभूमि में डटा रहा।
हर बाण से जिसने उत्तर दिया,
पर सत्य से कभी मुख न मोड़ा।

कर्ण, तू आदर्श है मानवता का,
त्याग और साहस का, सच्चे मित्र का।
तेरा जीवन है प्रेरणा का शिखर,
हर युग में रहेगा तेरा आदर।

तेरा बलिदान अमर रहेगा,
तेरी गाथा हर मन गुनगुनाएगा।
धर्मराज भी झुकते हैं तुझ पर,
सूर्यपुत्र, तेरा नाम युगों तक दमकेगा।

यह रचना समर्पित है तेरी शौर्यगाथा को,
तेरी अमिट स्मृति और त्याग को।
रणभूमि का वह दिव्य प्रकाश,
कर्ण, तुझसे बना यह जग महान।
***

संदेश:
कर्ण की कहानी हमें यह सिखाती है कि संघर्ष चाहे कितना भी बड़ा हो, सच्चा वीर वही है जो अपने सिद्धांतों और आदर्शों को कभी नहीं त्यागता। उसका जीवन त्याग, मित्रता, और कर्तव्य का सर्वोच्च उदाहरण है। यह खंडकाव्य कर्ण जैसे महानायक को नमन है, जो अपने बलिदान से अमरत्व को प्राप्त हुए।

चक्रवर्ती आयुष श्रीवास्तव - प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos