कविता तुम हो चिर-परिचित - कविता - राघवेंद्र सिंह
सोमवार, दिसंबर 09, 2024
किसी अपरिचित प्रांगण में
छाया-सी बनती हो श्यामल।
किसी आर्द्र चितवन को आकर,
वायु-सी करती हो निर्मल।
स्मृतियों की प्राण निधि तुम,
तुम निर्जन पथ की सरिता।
श्वासों का स्पंदन तुमसे,
तुम ही बनती नव-वनिता।
जीवन की निष्प्राण कली पर,
तुहिन कणों-सी तुम वर्षित।
कविता तुम हो चिर-परिचित,
कविता तुम हो चिर-परिचित।
हृत्तंत्री की स्वरित रागिनी,
इंद्रधनुष-सी नभ विस्तृत।
मुझसे मेरा परिचय तुमसे,
अंतर्मन से तुम उद्धृत।
मेरे नीरव शून्य जगत की,
तुम ही अंतिम अभिलाषा।
मेरे लघु जीवन की मुखरित,
बनती हो तुम परिभाषा।
बंद दृगों में चित्र बनाकर,
स्वप्नों को करती हर्षित।
कविता तुम हो चिर-परिचित,
कविता तुम हो चिर-परिचित।
उन्मादी उस प्रलय काल में,
तुम ही बनती कर्णाधार।
दुलराती तुम सकल वेदना,
तुम ही करती नित शृंगार।
तुममें ही अस्तित्व निहित है,
तुम ही अन्वेषित संधान।
तुम जीवन की अमर तृप्ति हो,
तुमसे परिचित नवल विधान।
नवल विधानों से परिचय कर,
करता तुमको कवि संचित।
कविता तुम हो चिर-परिचित,
कविता तुम हो चिर-परिचित।
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