शायद यहाँ अब कोई हमारा नहीं - कविता - मयंक द्विवेदी

शायद यहाँ अब कोई हमारा नहीं - कविता - मयंक द्विवेदी | Hindi Kavita - Shaayad Yahaan Ab Koi Hamara Nahin. घर के बुज़ुर्गों के मृत्यु हो जाने के बाद घर की स्थिति पर रचना
(घर के बुज़ुर्गों के मृत्यु हो जाने के बाद घर की स्थिति पर रचना)

अब आँगन की चिड़ियों को दाना देता नहीं
इन पंछियों को अब कोई खिलाता नहीं
अख़बारों में सुर्ख़ियाँ होगी कई
क़िस्से सुर्ख़ियों के कोई अब सुनाता नहीं

शामों की देहरी ने जब आँखे मूंदी
दूर-दूर से आता अब कोई बुलावा नहीं
सर्द रातों को ख़ामोश चूल्हे हुए
अब इन चूल्हो में जलता अलावा नहीं

सींच कर जिस तरू को सँवारा यही
आज उस उपवन का कोई बाग़बाँ ही नहीं
गा के लोरी थपकियों से सुलाते थे वो
अब इन सिसकियों का कोई सहारा नहीं

लाठी, चश्में, किताबे  कह रही है मुझे
अजनबियों से चेहरे अजनबियो का घर
जानता था जो हमको अब दिखता नहीं
शायद यहाँ अब कोई हमारा नहीं


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