तुम रहो अज्ञात - कविता - अनमोल

तुम रहो अज्ञात - कविता - अनमोल | Hindi Kavita - Tum Raho Agyaat - Anmol
भू-रज पर  बन कली उठता
बह नीर-नयन निश्छल कहता–
बन प्राण बसे मुझमें जो तुम
दल-शूल बीच आशा भरता;
जीवन में, श्वास में, कण-कण में
देते आभा नित नव प्रभात
तुम रहो अज्ञात!

क्या करूँ जान परिचय तुम्हारा
जिय में तरंगों की रस-धारा
रेणु-कण-कण में भी प्रतिछाँह
फिर क्या भेंट क्या मिलन हमारा?
जगत-प्रणय से परे है ये–
न गुंजयमान कभी इसका नाद
तुम रहो अज्ञात!

रहूँ दूर उतनी ही निकटता
सुदूर अर्क हो तभी सरसता
कुसुम-गंध ले उड़े बयार
लगे नहीं निकट पर वहीं पनपता;
न शेष वास, अब स्पंदन मेरे
यहीं लीन, प्राण यह जलजात
तुम रहो अज्ञात!

रजनी की रंजित रजत रश्मियाँ
उत्फुल्ल हुईं भरे दिनकर कमियाँ
प्रभाकर बन प्राणों में भरो
उठूँ तिमिर से, जगमग दुनिया;
प्रति प्रकीर्णन प्रतिबिंब तुम्हारा
नवीन शोभा पा जाता गात
तुम रहो अज्ञात!

अब नहीं प्रणय माने संसार
कलुषित दृष्टि का है आगार
निकृष्ट मति-छाया जंजाल
पुनीत में भी छिपे विकार;
इस कर्दम में न करो आगमन
अलख रहो तभी मिटे विषाद
तुम रहो अज्ञात!


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