प्रमोद कुमार - गढ़वा (झारखण्ड)
ड्यूटी की ब्यूटी - लघुकथा - प्रमोद कुमार
रविवार, दिसंबर 22, 2024
पिछले चुनाव का यात्रा वृतांत सुनकर ही मिश्रा जी ने इस बार संपन्न होनेवाले पंचायत चुनाव में पिताजी का नाम चुनाव ड्यूटी से हटवाने का फ़ैसला किया था। आज के 'चिरौरी युग' में यह कार्य असंभव भी नहीं था। उपर से चूना, कत्था और पीले पत्ती की महिमा अलग थी। सो थोड़ा इधर-उधर करके अपना लक्ष्य हासिल करने में वह कामयाब रहे थे।
ख़ुशख़बरी सुनाने घर पहुँचे तो देखा, पिताजी अंगीठी ताप रहे हैं। पास बैठते हुए वह पिताजी से मुख़ातिब हुए, 'चुनाव ड्यूटी का कोई काग़ज़ नहीं मिला है न पिताजी?'
'कहाँ मिला है? सुना है, किसी ने मेरा नाम ही कटवा दिया।' पिताजी ने शंका ज़ाहिर की तो मिश्रा जी बोल पड़े, 'मैंने ही तो आपका नाम कटवाया है। पिछले चुनाव की घटना के कारण घरवालों का दबाव था। दुसरे, ठिठुरती ठंड में बुढ़ापे की परेशानी अलग।'
'निरा बुद्ध हो तुम!' बुढ़ापे का नाम सुनते ही पिताजी बिफर पड़े, 'तुम जवान क्या हो गए, मुझमें बुढ़ापा नज़र आने लगा? फिर बाँहें फैलाते हुए बोले, 'देख। अभी भी चुनाव ड्यूटी के लिए मैं तुमसे ज़्यादा फिट हूँ। इस बार का चुनाव पाँच चरणों में संपन्न होना है और सरकार के पास कार्मिकों की कमी है। इसलिए एक-एक व्यक्ति को अलग-अलग चरणों में तीन-तीन ड्यूटियाँ तक मिल रही हैं।'
'ठीक ही तो है पिताजी। बेवजह तीन-तीन बार चुनाव कराने जाने से तो बच गए।' मिश्रा जी ने हमदर्दी जताई तो पिताजी से रहा न गया, 'तुम क्या जानो। इस महँगाई में पाँच सौ रूपये तो कोई उधार नहीं देता और कहते हो, अच्छा ही तो है। यहाँ एक-एक ड्यूटी के लिए सरकार ढाई-ढाई हज़ार रूपये एडवान्स दे रही है। इस चुनाव ड्यूटी से कुल मिलाकर छः-सात हज़ार रुपये तो आ ही जाते। अतिरिक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आख़िर ऐसे ही पैसे काम आते हैं। सारे पैसे पर पानी फेर दिया न। बेवक़ूफ़ कहीं का... कम-से-कम एक बार पूछ तो लिया होता।'
पिताजी बकते जा रहे थे। उनकी बातों में 'ड्यूटी की ब्यूटी' साफ़ झलक रही थी और इस ब्यूटी के आगे मिश्रा जी की कर्त्तव्यपरायणता आज फीकी पड़ गई थी।
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