“कुरुक्षेत्र” सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नवजागरण की गाथा - निबंध - पुष्पा बुढलाकोटी

“कुरुक्षेत्र” सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नवजागरण की गाथा - निबंध - पुष्पा बुढलाकोटी | Nibandh - Kurukshetra Sanskritik Rashtrawad Ke Navajagaran Ki Gaatha - Pushpa Budhlakoti
सारांश 
साहित्य अध्ययन और आलोचना पद्दतीयों में विभिन्न सांस्कृतिक दर्शनों एवं विचारों का प्रभाव परिलक्षित होता रहा है अध्येता विभिन्न लेखकों के रचनाकर्म को अलग अलग दृष्टिकोणों में परखने और समझने की कोशिश करते रहे हैं। “भारतवर्ष का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। इसका जितना हिस्सा जाना जा चुका है, उससे कहीं अधिक भाग अभी भी ठीक-ठीक जाना नहीं जा सका है।” (1)

हिन्दी राष्ट्रवादी कवियों की साहित्यक-सामाजिक विरासत सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संदर्भ में राष्ट्रवाद को जानने का यह एक महत्वपूर्ण नज़रिया है। यह नज़रिया घटनाओं, परिवर्तनों और स्थितियों के विश्लेषण और समझने का आधार प्रस्तुत करता है। आज के संदर्भ में यह एक ऐसी चेतना है जो अपने सार रूप में नवजागरण है। नवजागर ने “कविता के नए रूपों और उनमें चित्रित जीवन ने जीवन के प्रति नया उत्साह पैदा किया जो मानवतावाद कहलाया।” (2)
यह चेतना समाज में अलग-थलग वर्गों के स्वार्थों से जुड़ी होती है, यानी इसका चरित्र वर्गीय होता है। इतिहास में भी हर वस्तुगत स्थिति को देखने में, उसको समझने में और उसका विवचेन करने में इस वर्गीय चेतना की अंह भूमिका होती है। यह बात जग ज़ाहिर है कि इतिहास हमारी अतीत की चेतना को रूपाकार देता है, इसके साथ ही यह भावी निर्माण के लिए रास्ता भी सुझाता है। इसीलिए इतिहास में विचारधारा की भूमिका को बार-बार रेखांकित किया गया है।
“वास्तविक साहित्यक दुनिया में क्या हो रहा और किन कारणों से ऐसा हो रहा है, इस ओर भी हमारे आलोचकों का ध्यान जाना चाहिए।” (3)

भारतीय राष्ट्रवादी परंपरा में धर्मनिरपेक्षता, संविधान, राष्ट्रवाद और आर्थिक, सामाजिक, पूंजीवाद के विषय पर विचार करते हुए इनमें से प्रत्येक पहलू का राष्ट्रवाद से गहरा संबंध है, जो देश की सांस्कृतिक विविधता समता, और समृद्धि के लक्ष्यों को दर्शाता है। भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक ऐसा भाव है जो देश की विविधता में एकता और सामाजिक सौहार्द्र को सशक्त बनाता है। भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह सभी नागरिकों को एकता के सूत्र में बाँधता है, भले ही उनकी धार्मिक भाषाई, सांस्कृतिक या सामाजिक पहचान भिन्न हो। भारत का राष्ट्रवाद व्यक्ति और समुदाय की स्वतंत्रता को मान्यता देता है और इसकी जड़ें स्वतंत्रता संग्राम के दौर से लेकर वर्तमान समय तक फैली हुई हैं। यह एक ऐसा आदर्श है जो भारत को “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना से जोड़ता है। आज के समाज में प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित है। 

इसी प्रकार रामधारी सिंह 'दिनकर' की कृति "कुरुक्षेत्र" एक महाकाव्यात्मक रचना है, जो महाभारत के युद्ध के बाद की परिस्थितियों और युद्ध की नैतिकता पर आधारित है। कवि ने इसमें युद्ध, शांति, धर्म, नैतिकता और मानवता जैसे गहन विषयों पर विचार व्यक्त किए हैं। उन्होंने युद्ध के परिणामस्वरूप समाज में फैलने वाले दुःख और पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया है। कथा के सार में युधिष्ठिर और भीष्म के संवाद के माध्यम से यह संदेश दिया गया है कि युद्ध का अंतिम उद्देश्य न्याय और स्थायी शांति होना चाहिए।

रामधारी कृत कुरुक्षेत्र  का विषय  मानवता, धर्म और सत्य के प्रति गहरे विचारों के साथ जुड़ा हुआ है। इस महाकाव्य का अंत एक प्रकार का आत्ममंथन है, जिसमें युद्ध की विभीषिका, उसके नैतिक पक्ष, और धर्म की सच्ची समझ का विवेचन किया गया है। इस काव्य के माध्यम से दिनकर ने यह संदेश दिया है कि सच्चा धर्म हिंसा या किसी एक पक्ष की विजय में नहीं, बल्कि समाज में शांति, करुणा और न्याय की स्थापना में निहित है। युद्ध में विजय-पराजय से महत्वपूर्ण है, मानवता की रक्षा। जहाँ विजय के पश्चात् भी मानवता पराजित हो जाती है वहाँ युद्ध का परिणाम हमेशा ही नकारात्मक रहता है। इस दृष्टि से हमें यह रचना नए ढंग से सोचने के लिए बाध्य करती हैं। युधिष्ठिर के अंतर्द्वन्द्व को आलोच्य पंक्तियों में कलात्मकता के साथ व्यंजित किया गया है।

बीज शब्द 
सांस्कृतिक, राष्ट्रवाद, नवजागरण, सामाजिक, धर्मनिरपेक्षता, संविधान, पूंजीवाद, विविधता, समता, समृद्धि, भाषाई, वसुधैव कुटुम्बकम् अन्याय, दुर्दशा, शोषण, असमानता, वर्ग संघर्ष आदि। 

उद्देश्य 
• सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्य का मूल उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं का विश्लेषण करना है। यह दृष्टिकोण साहित्य को केवल एक रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में नहीं देखता, बल्कि इसे समाज की भौतिक स्थितियों और वर्ग संबंधों का प्रतिबिंब मानता है। राष्ट्रवादी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त शोषण, असमानता और अन्याय जैसे दुर्दशाओं को उजागर करने का प्रयास किया।
• साहित्य की राष्ट्रवादी भावना एक ऐसा माध्यम है जो साहित्य के विश्लेषण और मूल्यांकन के लिए कई सिद्धांतों का उपयोग करता है। इस दृष्टिकोण का मुख्य उद्देश्य यह समझना है कि साहित्यिक रचनाएँ किस प्रकार से सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों, वर्ग संघर्षों और ऐतिहासिक विकास के प्रतिबिंब हैं।
• सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यिक रचनाएँ समाज की आर्थिक और सामाजिक संरचनाओं का प्रतिबिंब हैं। ये रचनाएँ समाज में वर्ग संघर्ष, शोषण, और आर्थिक असमानताओं को उजागर करती है।

मूल आलेख:
कुरुक्षेत्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नवजागरण की गाथा-
रामधारी सिंह 'दिनकर' राष्ट्रीय सांस्कृतिक कविता धारा के महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाने जाते है। उनकी प्रसिद्ध कविता 'कुरुक्षेत्र' का प्रकाशन 1946 में हुआ था। यह कविता सामधेनी में संग्रहीत है। यह महकाव्य सात सर्गों में विभक्त है। कुरुक्षेत्र, जिसे स्वतंत्रता प्राप्ति के समय की भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक पुनर्जागरण की भावना को अभिव्यक्त करने वाला माना गया है। इस काव्य में भारतीय संस्कृति, राष्ट्रवाद, और धर्म के मूल तत्वों का गहन विश्लेषण किया गया है। इस रचना के माध्यम से दिनकर ने महाभारत के युद्ध के माध्यम से जीवन और समाज के विभिन्न पहलुओं पर सवाल उठाए हैं, जो आधुनिक भारत के सांस्कृतिक जागरण से गहराई से जुड़े हुए हैं। यह महाभारत के शांति पर्व से प्रेरित है। यह रचना मूल रूप से महाभारत के भीष्म और युधिष्ठिर के संवाद पर आधारित है। यह मानव धर्म और कर्म की विचारात्मक गाथा है। इस महाकाव्य में युद्ध के अवगुणों और मानव जाति को होने वाले नुक़सान का वर्णन है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और नवजागरण भारतीय संस्कृति के पुनर्निर्माण और आत्मनिरीक्षण का आह्वान करता है। इसमें उन्होंने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना को बल दिया, जिसमें संस्कृति को केवल धर्म तक सीमित न रखते हुए इसे समग्र जीवन दृष्टि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। दिनकर का मानना था कि सांस्कृतिक जागरण से ही राष्ट्र का वास्तविक विकास संभव है। कुरुक्षेत्र में धर्म और अधर्म के बीच के संघर्ष को राष्ट्रीय पुनर्जागरण की प्रेरणा के रूप में चित्रित किया गया है। धर्म, न्याय, और युद्ध को सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना न मानकर उसे एक प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने इसमें इस बात पर जोर दिया है कि धर्म की रक्षा के लिए संघर्ष आवश्यक है, लेकिन अधर्म के मार्ग पर चलकर धर्म की स्थापना संभव नहीं है। काव्य में अर्जुन के संशय, युद्ध की विवशता, और युधिष्ठिर की न्यायप्रियता का उल्लेख करते हुए दिनकर ने धर्म और युद्ध के अंतर्निहित मूल्यों की व्याख्या की है। कुरुक्षेत्र में राष्ट्रवाद का यह संदेश मिलता है कि राष्ट्र केवल भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति, सभ्यता, और इतिहास का समन्वित स्वरूप है। दिनकर ने महाभारत की पृष्ठभूमि में भारत के सांस्कृतिक तत्वों को उभारते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि समाज में नैतिकता और न्याय की पुनः स्थापना से ही एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो सकता है।

छायावादी काव्यान्दोलन सांस्कृतिक जागरण का आन्दोलन था। इस आन्दोलन में राष्ट्रीयता के तत्व सूक्ष्म रूप में विन्यस्त हुए हैं, लेकिन युगीन परिस्थिति ठीक इसके विपरीत थी। सन् 1930 ईसवी के बाद भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में तीव्रता आती है। भगतसिंह की फांसी के बाद युवा आक्रोश चरम सीमा पर पहुँचती हैं। संपूर्ण विश्व मंदी के दौर से गुज़र रहा था, ऐसे समय में पराधीनता की पीड़ा और तीव्र हुई। छायावादी कल्पना लोक से हटकर स्वयं छायावादी कवि भी यर्थाधवादी कवि भी यर्थाथवादी रचना की ओर प्रवृन्त हुए। ऐसे समय में राष्ट्रीय-सांस्कृतिक कविताधारा की उत्पत्ति का ही वस्तुगत कारण था। इसी काव्यधारा में 'दिनकर' का आगमन किसी क्रान्ति से कम नहीं था। जिसका आग़ाज़ उनकी कविता की इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त होता है-
“कुरुक्षेत्र में जली चिता जिसकी, वह शान्ति नहीं थी;
अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली, वह दुष्क्रान्ति नहीं थी।” (4)
“थी परस्व-ग्रासिनी भुजंगिनी, वह जो जली समर में,
असहनशील शौर्य था, जो बल उठा पार्थ के शर में।” (5)
“हाय, पिताहम, हार किसकी हुई है यह ?
ध्वंस-अवशेष पर सिर धुनता है कौन ?
कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूँढ़ता है ?
और बैठे मानव की रक्त-सरिता के तीर।” (6)
“नियति के व्यंग्य-भरे अर्थ गुनता है कौन?
कौन देखता है शवदाह बंधु-बांधनों का ? 
उत्तरा का करूण विलाप सुनता है कौन?” (7)

'कुरूक्षेत्र' में युद्धकालीन समस्याओं को आलोच्य पंक्तियों में युधिष्ठिर द्वारा भीष्म पितामह से यह प्रश्न पूछना कि युद्ध में किसकी विजय हुई है? यह अपने आप में यह संकेत करता है कि युद्ध अपनी अंतिम परिणति में अहितकर ही होता है। प्रस्तुत पंक्तियों में धर्मराज युधिष्ठिर महाज्ञानी भीष्म पितामाह से प्रश्न करते हैं कि है पितामाह ! महाभारत के इस युद्ध में किसकी हार हुई है? अर्थात् इस युद्ध में पाण्डव हारे हैं या कौरव। युद्ध के परिणाम के तौर पर तो हम जीत गए हैं किन्तु क्या इसे विजय मानी जा सकती है। युद्ध के बाद जो ध्वंस के अवशेष दिखाई दे रहे है, वह पश्चाताप के सिवाय और क्या पैदा कर रहे है। विनाश और ध्वंस सुखकारी कैसे हो सकते हैं। अतः ऐसे ध्वंस के बाद मिली युद्ध में विजय गहरे पश्चाताप को जन्म दे रही है। सामने युद्ध जिस राजमुकुट को प्राप्त करने के लिए इतने नरसंहार हुए हों, वह भला कैसे सुखद हो सकता है। युद्ध में जो विजय युधिष्ठिर को मिली, वह भयानक रक्त-पात के बीच। ऐसा लगता है मानो रक्त की नदी वह रही हो और कोई व्यक्ति (मानवता) उसके किनारे बैठा हो। इसे व्यंग्य के सिवाय और क्या कहा जा सकता है? भाग्य/नियति जैसे मनुष्यता की इस पराजय पर व्यंग्य कर रही है। युद्ध-विजय के बाद अपने निकट संबंधियों के शवदाह को देखते हुए तथा अभिमन्यु पत्नी उत्तरा के विलाप को सुनते हुए युधिष्ठिर की विजय ? युधिष्ठिर प्रश्न कर रहा है कि युद्ध में विजय उसकी जीत है या पराजय ? वस्तुतः इसे युधिष्ठिर अपनी पराजय के रूप में ही देख रहा है। अतः स्पष्ट है कि प्रस्तुत पंक्तियों में संवाद शैली के माध्यम से कवि ने सत्य को खोजन की कोशिश की है।  
"करूँ आत्मघात तो कलंक और घोर होगा, 
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा; 
पशु-खग भी न देख पायें जहाँ, 
छिप किसी कन्दरा में बैठ अश्रु खुलके बहाऊँगा।” (8)
“जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी, 
छिपा तो रहूँगा, दुःख कुछ तो भुलाऊँगा; 
व्यंग्य से बिंधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं, 
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा।” (9)

युधिष्ठिर के पश्चाताप और ग्लानिपूर्ण कथन को सुनकर भीष्म पितामह युधिष्ठिर को समझाते हुए कहते है कि युधिष्ठिर कभी ऐसा होता है कि कोई तुम्हारी स्वतंत्रता का हरण करता हो या तुम्हारे स्वाभिमान को नष्ट करता हो या तुम्हारे अस्तित्व को नष्ट करने की कोशिश कर हरा हो तब त्याग एवं तप की बात करना या प्रतिरोध न करना ही पाप होता है। पाप और पुण्य की कोई बंधी-बंधाई परिपाटी नहीं होती बल्कि परिस्थितियों के अनुसार ही वे तय होते हैं। अनाचारी को नष्ट कर दो, उसके हाथ काट दो अर्थात् अत्याचार के समय यदि तुम प्रतिरोध न करके सत्य-त्याग-तप की सैद्धान्तिक बातें ही करते हो तब वहीं पाप है।
वस्तुत: कुरुक्षेत्र भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नवजागरण की एक ऐसी गाथा है जो महाभारत के युद्ध के माध्यम से समकालीन भारत को एकता, नैतिकता, और सांस्कृतिक गौरव के मार्ग पर प्रेरित करती है।

निष्कर्ष 
महाकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' की रचना कुरुक्षेत्र का निष्कर्ष मानवता, धर्म और सत्य के प्रति गहरे विचारों के साथ जुड़ा हुआ है। इस महाकाव्य का अंत एक प्रकार का आत्ममंथन है, जिसमें युद्ध की विभीषिका, उसके नैतिक पक्ष, और धर्म की सच्ची समझ का विवेचन किया गया है। इस काव्य के माध्यम से दिनकर ने यह संदेश दिया है कि सच्चा धर्म हिंसा या किसी एक पक्ष की विजय में नहीं, बल्कि समाज में शांति, करुणा और न्याय की स्थापना में निहित है। युद्ध की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए भी शांति की श्रेष्ठता को महिमामंडित किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि युद्ध केवल तभी उचित है जब उसका उद्देश्य अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना हो। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि युद्ध ही एकमात्र समाधान है। वास्तविक विजय शांति और सामंजस्य में है।
इस प्रकार कुरुक्षेत्र में दिनकर ने धर्म को किसी पंथ या संप्रदाय तक सीमित न रखकर इसे मानवता के कल्याण से जोड़ा है। उनके अनुसार, धर्म का उद्देश्य समाज में समता, सह-अस्तित्व, और करुणा का प्रसार करना है। धर्म वही है जो समाज में अन्याय और अत्याचार का विरोध करे, चाहे इसके लिए संघर्ष करना पड़े। युद्ध तभी न्यायसंगत है जब वह नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए हो। कुरुक्षेत्र के माध्यम से यह संदेश मिलता है कि नैतिकता और मानवीय मूल्य ही किसी राष्ट्र की वास्तविक शक्ति हैं। इसलिए, राष्ट्र को केवल बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि भीतरी दोषों से भी बचाना चाहिए। भारतीय सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत करने का आह्वान किया है। वह मानते हैं कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का आधार मानवता, नैतिकता, और सत्य का अनुसरण है, जो भारत को सशक्त बना सकता है। सच्ची विजय मानवता की विजय है। हिंसा और अधर्म से धर्म और सत्य की स्थापना नहीं हो सकती। जो समाज मानवीय मूल्यों, करुणा, और आपसी सहयोग पर आधारित होता है, वही समाज शाश्वत रूप से विजयी होता है। कुरुक्षेत्र का निष्कर्ष आधुनिक समाज के लिए एक प्रेरणा है कि युद्ध और हिंसा के स्थान पर मानवीय गुणों और करुणा का विकास ही स्थायी शांति और समृद्धि का मार्ग है।
इस रचना में मानवता को जागरूक करने और युद्ध की निरर्थकता को समझाने का प्रयास किया है। यह कृति आज भी प्रासंगिक है और शांति, न्याय और मानवता के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश देती है।
आधुनिक काल में कुछ इसी तरह की सांस्कृतिक स्वर लक्षित हुए है। कवि रामचरित उपाध्याय की 'सूक्ति-मुक्तावली' में इसी प्रकार के छंद के उदाहरण है-
न्याय-परायण जो नर होगा उसकी कभी न होगी हार,
कपटी कुटिल कोटि रिपु उसके हो जावेंगे क्षण में छार!
पाण्डव पाँच रहे कौरव सौ, राम एक थे निशिचर लक्ष,
विजयी वे ही हुए, देख लो, न्याययुक्त था उनका पक्ष। (10)

संदर्भ
1- हजारी प्रसाद द्विवेदी-भाषा साहित्य और देश, भारतीय ज्ञानपीठ नई  दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ 188 
2- आधुनिक हिन्दी आलोचना के बीज शब्द-बच्चन सिंह, वाणी प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली, संस्करण 2010, पृ057 
3- हजारी प्रसाद द्विवेदी- साहित्य सहचर- भारतीय ज्ञानपीठ नई  दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ 19 
4- रामधारी सिंह दिनकर- कुरुक्षेत्र,राजपाल एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली, संस्करण 2009, पृष्ठ 31
5- वहीं, पृष्ठ 31
6- वहीं, पृष्ठ 11 
7- वहीं, पृष्ठ 11 
8- वहीं, पृष्ठ 13 
9- वहीं, पृष्ठ 13 
10- आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास - डॉ॰ श्रीकृष्ण लाल, हिन्दी परिषद प्रयाग विश्वविद्यालय, संस्करण 1997, पृष्ठ 72
11- रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, वाणी प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली, संस्करण 2010, पृष्ठ 57 
12- बच्चन सिंह - हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली 
13- रामस्वरूप चतुर्वेदी - हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली
14- नंददुलारे वाजपेयी - कवि सुमित्रानंदन पंत, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 1997
15- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - हिन्दी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली, संस्करण 2010 
16- राहुल सांकृत्यायन, दर्शन दिग्दर्शन, किताब महल पब्लिशर्स, अंसारी रोड दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1944, नवीन संस्करण, 2017 
17- हिन्दी साहित्य का अतीत - आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, वाणी प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली, संस्करण 2000 
18- रामधारी सिंह दिनकर - संस्कृति भाषा और राष्ट्र,लोकभर्ती प्रकाशन, इलाहाबाद नई दिल्ली पटना, संस्करण 2008 
19- आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास - डॉ॰ श्रीकृष्ण लाल, हिन्दी परिषद प्रयाग विश्वविद्यालय, संस्करण 1997

पुष्पा बुढलाकोटी - तीन पानी, हल्द्वानी (उत्तराखण्ड)

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