प्रमोद कुमार - गढ़वा (झारखण्ड)
आ कर तो देखो - गीत - प्रमोद कुमार
बुधवार, जनवरी 22, 2025
सृजन के प्रेमगीत गाकर तो देखो,
कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो।
धरती को चुनर धानी सरसों ओढ़ाए,
सूरज की लाली जैसे बिंदिया सजाए,
उन्नत हो वक्षस्थल-सा गिरि मुस्काता,
चरण पखारे नदिया पवन गीत गाता,
सुर में इनकी सूर तू भी मिलाकर तो देखो,
कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो।
खेतों की फ़सलें अक्सर यूँ बतियाती,
मेड़ और क्यारी सुनकर ख़ूब शर्माती,
ढाक-गुलमोहर देखो खिलें रतनारे,
पगडंडी आरे यहाँ नहर के किनारे,
कुदरत की गोद में तुम नहाकर तो देखो,
कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो।
बैठा मोती ओसारे में करे रखवाली,
कागा मुंडेर बोले कुहुके कोयल डाली,
बुलबुल है गीत गाती चहके चिरईयाँ,
अहरा तालाब में मचलें मछरी गरईया,
रीत भाईचारे की निभाकर तो देखो,
कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो।
मकई की रोटी संग गुड़ मीठा-मीठा,
लिट्टी-चोखा, चटनी कभी बड़ी, दलपीट्ठा,
साग चने की सौंधी लहसुन मिर्च डारी,
दही-पापड़ खिचड़ी संग कभी तरकारी,
घी से छौंकी माड़-भात खाकर तो देखो,
कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो।
होती नहीं शहरों सी गाँव की कहानी,
इसकी तो होती है बस अपनी रवानी,
बचपन है पलता यहाँ खिलती जवानी,
संग खेलें अँगनाई में झूमर दादी-नानी,
कमर अपनी साथ इनके हिलाकर तो देखो,
कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो।
दर-दर समरसता की शर्बत है घुलती,
खिड़की भरोसे की हर घर से खुलती,
अँगना विराजे यहाँ भोला संग गौरा,
ठाँव शोभे सुन्दर तुलसी दाई का चौरा,
रोज साँझ सँझवाती जलाकर तो देखो,
कभी गाँव मेरे आ कर तो देखो।
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