राजेश राजभर - पनवेल, नवी मुंबई (महाराष्ट्र)
अभिमत - कविता - राजेश राजभर
शुक्रवार, जनवरी 31, 2025
सत्य का सत्कार हो, भू-धरा पर
मानवता का शृंगार हो, भू-धरा पर।
रह न जाए आखिरी -पंक्ति विरान,
जन-जन का सम्मान हो-भू-धरा पर।
रेत भरी रस्म, काम, क्रोध, लोभ, यातना,
अंततः अंत की, कर प्रबल कामना।
ख़त्म हो प्रभाव, भेदभाव ऊँच-नीच का,
समानता का विस्तार हो-भू-धरा पर।
असंख्य अराति, दनुज, का छल-बल,
जिनके कारण टूट रहा, कल, पल-पल।
दुराचारी, विनाशकारी, विलुप्त हो,
निर्ममता का बहिष्कार हो-भू-धरा पर।
भूख, ग़रीबी, लाचारी, बढ़ती बेकारी,
अंत पड़ी सुविधाओं की मारा-मारी।
धर्म-कर्म, दर्शन की अलख जगाएँ,
निर्धनता का तिरस्कार हो-भू-धरा पर।
सामाजिक ताना-बाना, भयमुक्त पले,
त्याग, समर्पण, अधिकारों के छाँव तले।
संस्कार, सद्भावना की अँगड़ाई पर,
सम्पन्नता का अविष्कार हो-भू-धरा पर।
आओ क़दम दर क़दम मिल चलें,
अनेकता में एकता, हासिल करें,
विघटन, विकट, पतन, जीवन का,
अपनत्व, का अभिमत हो-भू-धरा पर।
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