अंधेरे, पनाह दो - कविता - कर्मवीर 'बुडाना'
गुरुवार, जनवरी 30, 2025
एक ही जन्म में शिद्द्त से करो मोहब्बत,
सातों जन्म साथ की मत माँगों सोहबत।
बड़ी बे-रुख़ी से गर उसने दिल तोड़ दिया,
दिल कहता हैं, अच्छा हुआ, छोड़ दिया।
बेदर्दी है बहुत, पता हैं फिर भी उदास हूँ,
बज़्म में साक़ी संग पी रहा मैं देवदास हूँ।
मेरी शेर ओ शाइरी से ख़ुश हो जाती थी,
और सुनाओ कहकर रातभर जगाती थी।
अंजुमभरी रात में चाँद को इज़हार करो,
अब्र में तम घना, सुबह का इंतज़ार करो।
उन रुख़सारों पर जब शाम ठहर जाती हैं,
मुस्कराहट उत्तर से दक्षिण फैल जाती है।
गर हो विरही तो पुनः बन जाओ मुसाफ़िर,
बहुत हैं तुम्हारें जैसे इस दुनिया में क़ाफ़िर।
अर्ध रात्रि में तारों को डूबने की सलाह दो,
कहो, उल्लुओं आओ, ओ अंधेरे, पनाह दो।
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