अंतरंग - कविता - विक्रांत कुमार
रविवार, जनवरी 12, 2025
बावला मन ने एक संबंध गढ़ा
जैसे राख की ढेर पर
चूसे हुए आम की गुठली का अंकुर
नया डंठल बन उग आता है
लालच के अंतरंग में!
अपार जटिलताओं को भेदते
नन्हा पौध बन सकारता है
जीवन की उत्सुकता को स्वीकार-कर
बढ़ना शुरू कर देता है
फैलना शुरू कर देता है
अपनी जड़ो को राख की
नमकीन सोंधि धूलों में छुपते-छुपाते
फुदकते-मचलते-इठलाते
विकल मन से!
कब सयाना हो जाता
पता ही नहीं चलता
पता तब चलता है
जब वह नए फल का आह्वान करता है!
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