बस! रहो तुम मेरे पास प्रिये - कविता - प्रवीन 'पथिक'
बुधवार, जनवरी 29, 2025
जीवन क्या एक पतझड़ है!
खिलना और बिखरना है,
दुःख का तो आना जाना है।
गिरना फिर उठकर चलना है।
जब याद तुम्हारी आती है,
आँखों में आँसू आते हैं।
एक पीर हृदय में उठती है,
मिलने की चाह बढ़ाते हैं।
जीवन ही मेरा बन जाओ,
एक यही हृदय में आस प्रिये।
लुट जाए चाहे मेरा जहाँ,
बस! रहो तुम मेरे पास प्रिये।
रिमझिम बरसता सावन हो,
या मधुऋतु की हरियाली हो।
मैं बनूॅं बसंत; तुम हो मधुमय,
जैसे कुमकुम की लाली हो।
इंद्रधनुष सी बनकर तुम,
नभ में ऐसे छा जाती हो।
लगती सतरंगी पुष्पों-सा,
ऑंखों की प्यास बुझाती हो।
शशि-सा सुंदर है रूप तेरा,
कुंजो की शीतल छाया हो।
प्रकृति-सा फैला है ऑंचल,
कंपित किसलय की काया हो।
मेरे सपनों की सुंदर बगिया में,
वो पुष्प, जो है एक ख़ास प्रिए।
लुट जाए चाहे मेरा जहाँ,
बस! रहो तुम मेरे पास प्रिये।
अनुराग तुम्हारा है ऐसे,
जैसे सागर में पानी है।
सागर के दो किनारों-सा,
ऐसी अपनी तो कहानी है।
पूनम की रजनी में चंद्र जब,
सागर से मिलने आता है।
कंपित उर्मियों से सागर,
अपनी सब व्यथा बताता है।
प्रेम में दर्द क्या होता है?
है मुझे इसका एहसास प्रिए।
लुट जाए, चाहे मेरा जहाँ,
बस! रहो तुम मेरे पास प्रिए।
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