फिरती घिरती छाया - कविता - कर्मवीर 'बुडाना'
गुरुवार, जनवरी 16, 2025
जिसे भी हैं अपना उल्लू सीधा करना,
वो दिखाएगा हमें कोई फ़रेबी सपना।
बड़ा इल्म हैं ये वक़्त भरोसे का नहीं,
रिश्तों में न रहा दम, टूटा हर अपना।
समय दिखा रहा हैं नक़्श-ओ-नकाब,
बस ज़हन में अमिट ये नश्तर रखना।
दरख़्त मरा नहीं हैं, ये दौरे दुष्काल हैं,
फिरती घिरती छाया, तय फिर उगना।
आडम्बर तू भी रच कोई इस जहाँ में,
झूठों की गूँज हैं सच्चे का रोज़ मरना।
'कर्मवीर' आदमी लाख रूपयों का हैं,
जानना है, पढ़ो, मिरे संघर्ष का पन्ना।
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