इस शहर में - कविता - मयंक द्विवेदी
गुरुवार, जनवरी 02, 2025
धूप तो है मगर छाँव नहीं है
इस शहर में कोई गाँव नहीं है
चलते तो है सब मगर ढाँव नहीं है
इस शहर में कोई गाँव नहीं है।
ढलती है शाम मगर रात नहीं है
शोर तो है बहुत मगर बात नहीं है
चल रहा हूँ भिड़ में अनजाना-सा
भीड़ तो बहुत मगर जज़्बात नहीं है
इस शहर में कोई गाँव नहीं है।
दिल की बात कहूँ तो कहूँ किसको
सवाल तो बहुत मगर जवाब नहीं है
ख़ुदग़र्ज़ तो कई पर हमदर्द नहीं है
तमाशाबीन कई पर कोई साथ नहीं है
इस शहर में कोई गाँव नहीं है।
शीशे तो बहुत है पर चेहरे नहीं है
दरवाज़े बन्द है पर विराने नहीं है
खिड़कियों से कोई बुलावे नहीं है
अपनों से दिखते कई पर अपने नहीं है
इस शहर में कोई गाँव नहीं है।
खुलापन है मगर पाबंदियाँ नहीं है
चौड़े रास्तों में दिल की पगडंडियाँ नहीं है
चौराहे तो कई पर मसकरियाँ नहीं है
अदब में सभी कोई मज़ाकियाँ नहीं है
गलियाँ मुड़ती तो बहुत पर मिलाती नहीं है
चलते तो है शहर पर फ़ुर्सत आराम नहीं है
इस शहर में कोई गाँव नहीं है।
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