माँ - कविता - सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'

अंधेरों के जानिब से, जो रोशनी छीन लाए वो माँ होती है।
अपने हिस्से का निवाला, जो तुम्हे खिलाए वो माँ होती है॥

धूप में आँचल से छाया करदे, और सर्दी में तन से लिपटाए।
जो रातों में भी उठ-उठ कर, तुम्हें सुलाए वो माँ होती है॥

रोए तू और आँसू उसकी आँखो से, छलक-छलक जाए।
लगे चोट तुम्हें, और देख दर्द से जो कराहे वो माँ होती है॥

मापोगे क्या ममता उसकी, आँखों में जिसके समंदर समा जाए।
यूँ रखते ही सर जिसकी गोद में, नींद आ जाए वो माँ होती है॥

जब हो कोई परीक्षा तुम्हारी, पूरी-पूरी रात वो सो न पाए।
जो अलार्म से भी पहले उठकर, तुम्हें जगाए वो माँ होती है॥

जब तुम जाओ दफ़्तर, सोचे बेटा कहीं भूखा न रह जाए।
हौसले बुलंद यूँ बुढ़ापे में भी, रोटी गर्म खिलाए वो माँ होती है॥

यूँ ही नहीं उदास होती है, रूठे गर तुमसे, बात ख़ास होती है।
गर पूछ ले 'सुराज' हाले दिल, टूट कर बिखर जाए वो माँ होती है॥


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