मैं घोड़ी क्या चढ़ गया - कविता - मयंक द्विवेदी
शुक्रवार, जनवरी 17, 2025
मैं घोड़ी क्या चढ़ गया रे
मेरे दिन फिर गए ऐसे
राहु-केतु वक्री हो गए
सारे फन फुला के बैठे।
मैं घोड़ी क्या...
सुनो सुनो की सुन-सुन कर
अब कान पक गए मेरे
बैण्ड बजी क्यों ऐसी मेरी
लगता उल्टे हो गए फेरे
सुनों-सुनो की दशहत से
धुजणी छूटती मेरे
प्राण बचे तो लाखो पाए
लगता भाग खड़े हो प्यारे
मैं घोड़ी क्या...
जब से मेरी शादी हो गई
हालत हो गई पतली
बीबी खा-खा के मोटी
और मैं बन गया सूतली
वो बन गई पिज़्ज़ा बर्गर
और मैं मरियल-सी रोटी
मैं घोड़ी क्या...
कैसे घर का ख़र्च चले
अब एक चले ना मेरी
में पक्का मारवाड़ी
और वो अंबानी की छोरी
वो क्या जाने मैं बेलूँ
वो पापड़ कैसे-कैसे
मैं घोड़ी क्या...
इसका चाँट पड़ता तो
याद आती है नानी
इसकी बातें जो ना मानी तो
फिर ना माँगूँगा पानी।
मैं घोड़ी क्या...
रोज़ जल्दी उठता मैं तो
सोती है महारानी
करता झाड़ू-पोछा-बर्तन
जैसे कोई कामवाली
रात को सोती शेरनी जैसे
और मैं कुत्ते सी रखवाली
मैं घोड़ी क्या...
बात-बात में आँख दिखाए
कभी लाते और घूँसे
कभी काँटो में फूल रहे
और कभी फूलो में काँटे
फिर भी रहते ऐसे हम
हरदम हँसते रहते
मैं घोड़ी क्या चढ़ गया रे
मेरे दिन फिर गए ऐसे।
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