राजेश राजभर - पनवेल, नवी मुंबई (महाराष्ट्र)
मैं प्रवासी मज़दूर - कविता - राजेश राजभर
शुक्रवार, जनवरी 03, 2025
भूख से लथपथ–
जीवन पथ पर,
मिटने को मजबूर,
मैं प्रवासी मज़दूर–
मेरी आत्मनिर्भरता ख़त्म हो गई!
मज़दूरी मौन हों गई!
महामारी की हवा विषैली–
बदल गई जीवन शैली।
पलायन पर “जनसैलाब”
बंद पड़ी बेज़ार “हवेली”...!
आपदा और बड़ी होती,
दिन से आगे–
रात निकल गईं,
मज़दूरी मौन हो गई!
मैं “मापता” ज़मीन
समेट कर सुनहरे दिन,
गली-गली, शहर-शहर,
चलता हूँ रात दिन,
कटता, मरता, गिरता हूँ–
फ़िर भी मैं ज़िन्दा हूँ!
ज़िंदगी जितकर “हार” गई,
मज़दूरी मौन हो गईं!
भयभीत क़दम रह थमते–
अब घरों पर ताले लगते,
अपनेपन की हवा निरंकुश–
“झंझावत” से कब तक लड़ते,
जलते-जलते आग
“चुल्हे” की बुझ गई,
मज़दूरी मौन हों गई!
मिटती अवसर की राहें–
अधिकारों के दीप जलाएँ,
उदासीनता-राजभवन की
दोहरे मापदंड अपनाए,
हमें रोकने की दीवारें–
बनी और कि ढह गई,
मज़दूरी मौन हो गईं!
टूटते मेरे साँसो के तार
शायद मुझ पर पड़ेगें हार,
जीविका-जलती
चौराहे पर–
बेबस, बेचैन, लाचार,
लहू धमनियों में सूखता–
घड़ी खड़ी-खड़ी थम गई,
मज़दूरी मौन हों गई!
मैं प्रवासी मज़दूर–
मेरी आत्मनिर्भरता ख़त्म हो गई।
साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos
विशेष रचनाएँ
सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी की देशभक्ति कविताएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी के 30 मशहूर शेर
दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें
कैफ़ी आज़मी के 10 बेहतरीन शेर
कबीर दास के 15 लोकप्रिय दोहे
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है? - भारतेंदु हरिश्चंद्र
पंच परमेश्वर - कहानी - प्रेमचंद
मिर्ज़ा ग़ालिब के 30 मशहूर शेर