समझ नहीं सका - कविता - प्रवीन 'पथिक'

समझ नहीं सका - कविता - प्रवीन 'पथिक' | Hindi Kavita - Samajh Nahin Saka - Praveen Pathik
समझ नहीं सका मैं,
रिश्तों की बुनियाद का आधार!
ऑंखों से बहता प्रेम या अंतःकरण से उमड़ता सागर।
अन्यमनस्क सा सोचता हूॅं;
प्रेम अभिव्यक्ति का विषय है या अनुभूति का।
तन की तृप्ति है, या ऑंचल का छाँव
कदाचित अर्थहीन भी लगता है यह शब्द!
खंडित खंडहरों में भटकता मेरा मन,
ढूॅंढ़ता आत्मिक शांति और बाह्य सुकून।
निश्चय नहीं कर पाता,
शब्द का मूल अर्थ अभिधा होता है या लक्षणा।
प्रश्न अकस्मात कौंधता मेघों-सा।
जीवन की परिभाषा है क्या? 
महत्वाकांक्षा या परित्याग!
अनेक सवाल झकझोरते हैं हृदय को,
उठता विचारों का तूफ़ान;
शब्द भटकने लगते यत्र तत्र;
उत्तर की खोज में।
अंततोगत्वा, शब्द!
खो जाते मौन के अंधेरे में।


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