सोचा नहीं था - कविता - प्रवीन 'पथिक'
शुक्रवार, जनवरी 03, 2025
सोचा भी नहीं था;
बचपन की नादानियाॅं,
विकराल रूप धारण कर
तांडव नृत्य प्रस्तुत करेंगी।
जीवन कितना बदल जाएगा!
क्षण भर में,
यह भी नहीं सोचा था।
सुनहले सपनें;
अकल्पनीय कल्पनाएँ;
पंछियों का कलरव;
और स्वछंद विचरण करना।
कब वीभत्स रूप धारण कर लेगा?
सोचा ही नहीं था!
यादों का पुलिंदा अपने भीतर सजाए,
रची थी एक कविता।
जिसकी धुन रोमाँच से भर देते थे।
वही, आज नीरस संगीत में परिवर्तित हो
सालते हैं उर को।
ऐसा कभी सोचा नहीं था!
एक स्वप्न,
जो नित देखता था
उसमें तुम थी, मैं था
हरी दरी से आच्छादित प्रकृति का आँचल था;
रंग बिरंगे फूलों से युक्त एक सुंदर बाग़ था;
जहाॅं चिड़ियाँ कलरव करती थीं;
भ्रमर गुंजार किया करते थे;
और
मृग व शार्दूल तालाब के एक ही तट पर
जल पीते थे।
अब वहाॅं
किसी पुराने किले का खंडहर है।
जहाॅं छत के दीवारों से,
उल्टे लटके चमगादड़ दिखाई देते हैं।
और झिंगुरों की कर्ण भेदी स्वर,
सुनाई देता है।
और दिखता है तो
बस, एक भयानक दृश्य!
जो सदियों पहले की
अपनी पीड़ा, घुटन और चीत्कार को
व्यक्त कर रहा हो।
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