मिट्टी के नीचे - कहानी - बापन दास
शुक्रवार, फ़रवरी 07, 2025
गहरी रात। खाट पर लेटे इधर-उधर कर रहा था। अचानक मानो फ़र्श से उठ आई वह आवाज़। एक मंद स्वर! सीटी की आवाज़, मानो कोई मिट्टी के नीचे से लगातार सीटी बजा रहा हो। पहले सोचा, शायद मन का भ्रम है, नया घर है और इस अजनबी जगह पर नींद न आने की वजह से परेशानी हो रही है; लेकिन बार-बार वही आवाज़ सुनकर खाट पर बैठ गया। खाट के पास वाली खिड़की से पूर्णिमा के चाँद की रोशनी मेरे बिस्तर पर पड़ रही थी। सोते समय मैंने पर्दा लगा दिया था, लेकिन खिड़की से आती हल्की हवा के झोंके ने उसे एक तरफ़ सरका दिया था। बाहर सड़क पर कुछ कुत्ते कभी-कभी कराहते हुए रोने लगते।
एक बेचैनी और जिज्ञासा धीरे-धीरे मुझ पर हावी होने लगी। इस घर को किराए पर लेते समय पड़ोसी ने मना किया था, लेकिन मैं हमेशा से ही अलौकिक चीज़ों पर कम विश्वास करता हूँ—या अविश्वासी भी कह सकते हो। खाट से उतरकर टॉर्च लिया और फ़र्श की ओर देखने लगा। फर्श में कुछ जगह दरारें पड़ी थीं, और शायद उन्हीं दरारों से वह आवाज़ आ रही थी। टॉर्च बंद करके खाट पर रख दी और झुककर फ़र्श पर कान लगा दिया।
"नहीं! कहीं कोई आवाज़ तो नहीं आ रही।"
अपने मन में ही यह बात दोहराते हुए फिर से अपना सिर उठाया। सिर उठाते ही फिर वही आवाज़ सुनाई दी, लेकिन इस बार सीटी नहीं, बल्कि मानो कोई लगातार खटखटा रहा था। मेरा अचानक गला सूख गया,
"क्या... क्या मैं डर रहा हूँ?"
अपने आप से यह सवाल करते हुए एक सूखा गला फँसाया और इस बार मैंने फ़र्श पर खटखटाया। मेरे माथे पर पसीने की एक पतली परत चढ़ गई। मेरा हाथ फिर से खटखटाने के लिए बढ़ा, लेकिन इस बार मेरे खटखटाने से पहले ही मेरे कमरे के दरवाज़े पर खटखट हुई।
खट-खट-खट-खट...
खाट से टॉर्च उठाकर दीवार पर लगी घड़ी देखी—रात के ढाई बजे हैं, इस वक्त कौन? फ़र्श से उठकर दरवाज़े की ओर चला। दरवाज़े के पास जाकर चटाक से कुंडी खोली और दरवाज़ा खोलते ही झोंके की आवाज़ के साथ ठंडी हवा मेरे कमरे में भर गई। दरवाज़े के सामने कोई नहीं था! मकान के मुख्य गेट के पास का लाइट पोस्ट बिना आवाज़ के किसी गूँगे की तरह सड़क की ओर निर्वाक देख रहा था, और उसकी रोशनी में रात के कीड़े बेख़बर नाच रहे थे।
"कौन?"
कोई जवाब नहीं आया। रात की ख़ामोशी और अँधेरे की गहरी चादर ने पूरे माहौल को निगल लिया था। मेरे भीतर से एक लंबी साँस निकली, और उसी के साथ एक ठंडा हाथ मेरे पीछे से आकर मेरे कंधे पर पड़ा। एक सिहरन पूरे बदन में दौड़ गई। माथे का पसीना अब गालों से नीचे टपकने लगा। पूरा शरीर काँपने लगा। काँपती गर्दन घुमाकर पीछे देखा तो सिर्फ़ घना अँधेरा नज़र आया। वह खिड़की, जिससे चाँद की रोशनी आ रही थी, वह भी अब ग़ायब हो गई थी।
ठक-ठक-ठक...
आवाज़ सुनते ही आँखें खोलकर देखा—हाह! यह तो सपना था! लेकिन मेरे आसपास अब भी खिड़की नहीं थी, सिर्फ़ घना अँधेरा और ठंडक थी। अचानक ठक-ठक की आवाज़ ऊपर से आई! गला सूखकर अटक गया। क्या मैं... क्या मैं मिट्टी के नीचे हूँ? ओह! मैं तो बहुत दिनों से यहीं हूँ! लेकिन आज ऊपर से आती यह ठक-ठक की आवाज़ मुझे राहत दे गई। अब मेरी मुक्ति है! और मेरी जगह लेने वाला कोई और आ रहा है!
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