बेटी - कविता - रामदयाल बैरवा
सोमवार, फ़रवरी 24, 2025
घूँघट नहीं, किताब थमा दो,
नन्ही परी को पंख लगा दो,
तोड़ दो ये झूठे बंधन,
जो नारी को कहते अमंगल,
जन्म से पहले प्राण गए,
समाज बना हैं क्यों दलदल?
बेटी को माना पराया धन,
बेटे को समझे जो शुभफल,
ऐसी अशुभ सोच मिटा दो;
घूँघट नहीं, किताब थमा दो।
उसको अक्षर ज्ञान करा दो,
दहेज मिटाता उसका जीवन,
निज आँगन न होता पालन,
कुप्रथाएँ बनी है बंधन,
विवाह मिटाता उसका बचपन,
चारदीवारी में बंध जाता,
उसका सारा जीवन कौशल,
उसको थोड़े खेल सिखा दो,
थोड़ा अक्षर ज्ञान करा दो,
घूँघट नहीं, किताब थमा दो।
इस पावन संस्कृति मे,
सदा सर्वत्र जिसका सम्मान,
जिसका रहा सदा गौरव,
और पूजनीय था उसका स्थान,
उसको फिर से पहचान दिला दो
घूँघट नही, किताब थमा दो।
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