खो रही दिशाएँ - कविता - प्रवीन 'पथिक'

खो रही दिशाएँ - कविता - प्रवीन 'पथिक' | Hindi Kavita - Kho Rahi Dishaayen  - Praveen Pathik
खो रही है गौरैया,
काल के धुँध में।
सूख रहे हैं पौधें,
जल के अभाव में।
मर रही हैं मछलियाॅं,
दूषित हुए तालाब से।
भयाकुल हैं आम जन,
दूसरों के अत्याचार से।
टूट रहे हैं लोग,
सपनों के टूटने से।
बिखर रहे हैं रिश्ते,
प्रेम के अभाव में।
चल रही दुःखों की आँधी,
वैमनस्य और व्यभिचार से।
भोग रहे हैं कष्ट जन,
अपने कर्तव्य और व्यवहार से।
मिट रही आशाएँ,
दुर्विनीत कुंठित विचार से।
उठ रहा तूफ़ान उर में,
चुभती किसी बात से।
खो रही दिशाऍं,
पथ के अनजान से।


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