सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)
क्या ज़िंदगी थी - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
मंगलवार, फ़रवरी 18, 2025
कुछ ज़मीं, कुछ आसमाँ
कुछ मुस्कुराहटें और कुछ सामाँ
कुछेक सिक्के, कुछ घूँट आब
क्या ज़िंदगी थी जनाब।
ख़ुशियों की... दस्तक की दरकार
नासमझ-से कुछेक यार
बेर पर लदे फल...
उनपर फेंकते कत्तल
निशाना सर्वथा चूक
कोशिशें बेहिसाब
क्या ज़िंदगी थी जनाब।
श्यामपट से दुद्धि निहारे
जीभ मसलपट्टी पुकारे
आँखे परिक्रमित-सी रहतीं
छन से कई भाषाएँ कहतीं
सहसा घमक्का परोसते मास्साब
क्या ज़िंदगी थी जनाब।
आम के टीकोरे न बचते
भीग जाते बल खरचते
नाक में भीनी-सी ख़ुशबू
फूल तोड़ने की आदत सी आरज़ू
जेब में गेंदा, गठुअन औ' गुलाब
क्या ज़िंदगी थी जनाब।
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