दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी' - बलिया (उत्तर प्रदेश)
मजबूर-सी औरत - कविता - दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी'
रविवार, फ़रवरी 23, 2025
पीठ पर बाँधकर दुपट्टे से
सुला रही थी अपने दुधमुँहे बच्चे को
अपने नर्म हाथों से थपथपाकर
मानों धरती को जगा रही थी।
मिट्टी को पसीने से सानकर
लोथे बना रही थी, ईंट पाथ रही थी
ईंट भट्ठे पर एक मजबूर-सी औरत
ईंटों के संग स्वंम को तपा रही थी।
मज़दूरी पर भारी थी उसकी मजबूरी
पल्लू के कोने में बंधे चंद नोटों को
एक टक वह निहारे जा रही थी
परिवार का भार सिर पर उठाए जा रही थी।
उदास तो थी पर हताश नहीं
पसीने से पत्थरों को पिघला रही थी
हौसलों की प्रबल ज्योति लिए
तूफ़ानों के विरुद्ध वह टिमटिमा रही थी।
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