मजबूर-सी औरत - कविता - दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी'

मजबूर-सी औरत - कविता - दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी' | Hindi Kavita - Majboor Si Aurat - Dilip Kumar Chauhan Baaghi. Hindi Poem on Helpless Women. मजबूर स्त्री पर कविता
पीठ पर बाँधकर दुपट्टे से
सुला रही थी अपने दुधमुँहे बच्चे को
अपने नर्म हाथों से थपथपाकर
मानों धरती को जगा रही थी।

मिट्टी को पसीने से सानकर
लोथे बना रही थी, ईंट पाथ रही थी
ईंट भट्ठे पर एक मजबूर-सी औरत
ईंटों के संग स्वंम को तपा रही थी।

मज़दूरी पर भारी थी उसकी मजबूरी
पल्लू के कोने में बंधे चंद नोटों को
एक टक वह निहारे जा रही थी
परिवार का भार सिर पर उठाए जा रही थी।

उदास तो थी पर हताश नहीं
पसीने से पत्थरों को पिघला रही थी
हौसलों की प्रबल ज्योति लिए
तूफ़ानों के विरुद्ध वह टिमटिमा रही थी।

दिलीप कुमार चौहान 'बाग़ी' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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