मन मर गया हो जैसे - कविता - शालिनी तिवारी

मन मर गया हो जैसे - कविता - शालिनी तिवारी | Hindi Kavita - Man Mar Gaya Ho Jaise - Shalini Tiwari
एक लड़की जो चहचहाती थी चिड़ियों-सी,
अजीब-सी ख़ामोशी ओढ़े है।
जिसे ज़िद थी भरी जवानी में बचपना जीने की,
उसका बचपना एक ही ज़िंदगी में
दो बार क़त्ल कर दिया गया,
गुम हैं कहीं ख़ुद में ही,
परिपक्वता का चोला ओढ़े,
घायल मन लिए हर एक से बच रही है।

कितने शौक़ थे उसके, कितना नूर था आँखों में,
अब कैसे बंजर आँखे लिए फिरती है,
कोई एक चीज़ न थी जिसे सीखने से कतराती हो,
शायद ही कुछ ऐसा हो जो उसे थोड़ा बहुत न आता हो,
अब देखो कैसे ज़िंदा लाश हुई है,
अपने शौक़ कैसे दफ़न किए है,
कैसे छिपती फिरती है,
कैसे मन को मार दिया है!

घंटो-घंटो जागती है,
घंटो-घंटो बेख़बर बेसुध पड़ी होती है,
आँखों के नीचे ख़्वाबों के क़ब्र हो जैसे,
मुरझाई-सी पड़ी है ऐसे
जैसे पतझड़ का आख़िरी फूल हो जैसे!
मर गया हो मन जैसे!!

शालिनी तिवारी - अहमदनगर (महाराष्ट्र)

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