शांत नदी - कविता - निवेदिता
मंगलवार, फ़रवरी 04, 2025
एक अध्याय का प्रारम्भ, और धारा फूट जाती है,
कई ढलानों को पार कर,
टकराती-चोट खाती, लड़खड़ाती संभलती
टूटती बिखरती, फिर एक होती जाती है।
पाषाणों की मार खाती, दर्द से कराहती,
फिर उन्हीं पत्थरों का आकार बदलती जाती है।
अकेली वो दुर्गम अनजान पथों की वैरी,
एक से अनेक होती जाती है।
अनेक से एक होते ही,
हर ग़म को अपनी ताक़त बनाती जाती है।
भयंकर रूप धारी, पत्थरों की जगह, पहाड़ों से लड़ जाती है।
अब कराह ललकार में बदल जाती है,
प्राणहारी, प्रलयंनकारी, छोटी-सी धार,
अब नदी कहलाती है।
अबोध निश्छल लकीर,
उफान में बदल जाती है।
कई युद्ध लड़ने के बाद थकी-सी लहर,
एक ठहराव पा जाती है।
तांडव करती शक्ति, शिव में बदल जाती है।
प्राण हरने वाली अब प्राण बन जाती है।
गर्त में दर्द समेटे , किसी के दर्द की राहत बन जाती है।
जीवन का अर्थ तलाशती हुई, स्वयं प्रश्नों का उत्तर बन जाती है।
साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos
साहित्य रचना कोष में पढ़िएँ
विशेष रचनाएँ
सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी की देशभक्ति कविताएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी के 30 मशहूर शेर
दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें
कैफ़ी आज़मी के 10 बेहतरीन शेर
कबीर दास के 15 लोकप्रिय दोहे
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है? - भारतेंदु हरिश्चंद्र
पंच परमेश्वर - कहानी - प्रेमचंद
मिर्ज़ा ग़ालिब के 30 मशहूर शेर