लक्ष्मी सगर - उत्तर प्रदेश
शायद तुम नहीं मानोगे - कविता - लक्ष्मी सगर
बुधवार, फ़रवरी 12, 2025
शायद तुम नहीं मानोगे।
अगर मैं कहूँ तुम्हारी साँसें जैसे हवा में घुलती कोई इत्र की ख़ुशबू जिनमें मैं गुम हो जाना चाहती हूँ॥
और तुम्हारी आवाज़ जैसे प्रकृति में कोई झरना कल-कल बहता हुआ जिसमें मैं कोई राग सुनना चाहती हूँ।
तुम मेरे अधरों को प्याले की तरह रसपान करते हो जिसमें विरह और मिलन के अश्क नज़र आते हैं।
और गुज़रते लम्हें इसमें घुल से जाते हैं॥
जब तुम कहते हो हम वक्त के कंटीले बंधनों में सदा हरे रहेंगे
मैं सीने में मरहम लिए ख़ुद से ही लिपट जाती हूँ।
तुम एक प्राचीन ग्रंथ की अल्हड़ लिपि हो जिसका वर्ण-वर्ण मैं सीखना चाहती हूँ॥
तुम हो कोई नीड़ का निर्माण जिसका तिनका-तिनका मैं चुनना चाहती हूँ।
तुम्हारे प्रेम का कैसा बोझ मुझपर, तुम लिए जाते हो भारहीनता के निर्वात में फिर-फिर॥
जैसे मन आज फिर हल्का हो गया हो गहरी नींद से जागकर।
अगर मैं कहूँ
तुम्हारा निःस्वार्थ प्रेम ही मेरे लिए वह सभ्यता और संस्कृति है
जिसको मैंने जाना है, और जिया है
ख़ुद से ही ख़ुद के लिए बनाई हुई हर सीमा को लाँघकर।
शायद तुम नहीं मानोगे।
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