वासंती उल्लास - कविता - मयंक द्विवेदी
बुधवार, फ़रवरी 05, 2025
बीत गए दिन पतझड के
कलियों तुम शृंगार करो
मधुर मधु-सरिता छलका
मधुकर पर उपकार करो
नील गगन के नील नयन से
शबनम की बौछार करो
हरित कनक की लडियों तुम
वीणा-सी झंकार करो।
मधुमास, लिए मधु घट भर
कुसुम-कुसम पर छाया है
शामों की सतरंगी साँझी पर
सूरज मिलने आया है
प्राची की पुरवाई से
शीतल समीर अहसास करो
अंबुद, अंबर में आभा से
इन्द्रधनुषी अलंकार करो।
पाखी पाखों से पंक्ति में
नभ के तुम उस पार चलों
सर सिंधु के दर्पण में
विधु आकर के अवतार धरो
कौमुदी की छलकी हाला से
कुमुदिनी निखार भरो
सुर्ख़ हुए कचनारों में
फिर वासंती उल्लास भरो।
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