सीमा शर्मा 'तमन्ना' - नोएडा (उत्तर प्रदेश)
वो अपने जो भेदी बन लंका ढहाते हैं - कविता - सीमा शर्मा 'तमन्ना'
गुरुवार, फ़रवरी 06, 2025
अपने ही घर के भेदी अक्सर वो जो बन जाते हैं,
वही अन्ततः उस सोने की लंका को एक दिन ढहाते हैं।
भूल जाते बातों को जिनका फ़ायदा दूसरे उठाते हैं,
और फिर उन्हीं के दिए दंश को ख़ुद नहीं सह पाते हैं॥
जिन्हें मतलब परस्त बनकर ही झूठे रिश्ते नाते भाते हैं,
देते मीठा ज़हर मरने को पर वो मूर्ख अमृत बतलाते हैं।
हैं क्या उनका कपट छल द्वेष पहचान ही नहीं पाते हैं,
उनकी आवो हवा में बहते हैं ख़ुद की पहचान गँवाते हैं॥
न समझे वो किसी को अपना न अपने ही बन पाते हैं,
घोलकर विष फिर जीवन में स्वयं विषधर बन जाते हैं।
कैसी कैसी चाल चलें और क्या क्या फिर स्वांग रचाते हैं,
नहीं डरे ईश्वर से क्योंकि स्वयं को ईश्वर जो बतलाते हैं॥
अंत सभी का हो समाना किसी ने पहले तो बाद में जाना,
फिर क्यूँ इस नश्वर देह की ख़ातिर इतना पाप कमाते हैं।
भला किसी का कर नहीं पाते बुरा फिर क्यों कर जाते हैं,
क्यों अपनी करनी पर तनिक भी जो नहीं पछताते हैं॥
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